Friday, October 29, 2010

युवराज का एक और त्याग !

" युवराज राहुल गाँधी ने दोयम दर्जे से रेलयात्रा की !"

देश धन्य धन्य हो गया. समाचार पत्रों में मुख्य पृष्ठ पर छापने के लिए हमारी मीडिया को कोटि कोटि प्रणाम. पता नहीं वो शुभ दिन कब आएगा जब हमारे  युवराज इस रियासत के राजा बनेगें !  हे राजकुमार अब और न  तडपायो जल्दी से आ हम गुलामों पर राज करो.

Friday, December 25, 2009

sansad ke aam !

भारतीय मीडिया में राजनीतिज्ञों को हर समय खलनायक दिखाए जाने से मैं कभी सहमत नहीं हो सकता. आखिर इन्ही राजनीतिज्ञों के कारण हमारा देश लोकतान्त्रिक कहलाता है. हर समय इन लोगों को कटघरे में खड़े करने वाले क्या कभी चाहेंगे कि भारत में भी पाकिस्तान की तरह कोई फौजी देश की कमान संभाल ले? इसलिए मैं राजनीति और राजनीतिज्ञों की तरफदारी में खड़ा हूँ.

परन्तु...............परन्तु यह राजनीति करने वाले भी हद करतें हैं. हर दिन यह कोई ऐसा काण्ड करतें हैं कि मेरा जैसा समर्थक भी इनको जूते मारने को दौड़े.  इस का लेटेस्ट उदाहरण हैं Times Of India में छपी यह खबर "No Inflation in Parliament Canteen".

संसद की कैंटीन में पाए जाने वाले पदार्थों के भाव देखिये और भाव खाईये. आम आदमी की आम सरकार के लिए आम गुठली के दाम.

समाचार साभार: अलका द्विवेदी 

Saturday, October 31, 2009

सिंह का नाद !

MGM की कार्टून फिल्में देखें तो कहानी शुरू होने से पहले MGM अपनी क्लिप दिखाती है जिस में एक घेरे में दहाड़ने को तैयार शेर बैठा होता है और वो दहाड़ता भी है परन्तु एक बिल्ली की आवाज़ में.  बहुत समय पहले लगभग इसी तरह का एक टीवी विज्ञापन खांसी ठीक करने वाली गोली का था जिस में एक शेर किसी मरघिल्ली बिल्ली की म्याऊं म्याऊं करता था.

जब भी हमारे प्रधानमंत्री कहीं भाषण देते सुनायी देतें  हैं यह किस्से मुझे याद आ जातें हैं. कुछ दिन पहले उन्होंने सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों को संबोधित किया था और अब कश्मीर में ! बहुत कष्ट होता है उन को बोलते सुन कर !  मेरा उन से कोई राजनैतिक मतभेद नहीं है परन्तु इतनी तो इच्छा होती ही है कि इतने बड़े देश का अग्रसर कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व होना चाहिए. स.मो.सि. की दब्बू  आवाज़ से लगता है जैसे कोई निराश महिला प्रसूति गृह से खाली गोद लेटी हुयी लौटी हो. एक तो हम पहले ही आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टवाद आदि आदि से पीड़ित हैं और फिर पीड़ित लीडर की पीड़ित आवाज़ में अपनी पीड़ा उस दुनिया को सुनाने की भोंडी कोशिश करते हैं जिसे हमारी पीड़ा की कोई पीड़ा नहीं है. मेरी अमरीकी लीडरों के प्रति कोई विशेष श्रद्धा नहीं है परन्तु मैं उन के भाषण देने की कला से अवश्य प्रभावित हूँ. अपनी बात से जनता के दिल पर दस्तक देने में वो लोग सक्षम हैं. ९/११ के बाद वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के मलबे पर से जार्ज बुश का कहना "we will bring those terrorists to justice" मुझे आज भी याद है. अब उस बात में वो कितना सफल हुए यह चर्चा का विषय हो सकता है पर एक बार तो बुश ने अपनी जनता के दिल में उत्साह भर ही दिया.  क्या हमें अपने किसी लीडर का ऐसा कोई उत्साहवर्द्धक उदघोष याद है ? मुझे तो नहीं ! किसी और की अंग्रेजी में लिखी लिखाई चिठ्ठी   सर झुका कर पढ़ डालने की उबाऊ औपचारिकता में लोग उबासियाँ ही लेते हैं प्रेरणा नहीं ! 

हर किसी के आगे चाहे पकिस्तान हो या बांग्लादेश या चीन या फिर अब नक्सली, बार-बार शांति (यह शांति नहीं कायरता है) की दुहाई दे दे कर उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि यह सिंह अंतर्नाद ही कर सकता है सिंहनाद नहीं ! किसी भी पार्टी का हो परन्तु एक सशक्त, प्रभावशाली और सक्षम नेता हमें चाहिए जो धारा को अपने राष्ट्र की आवश्यकता के अनुसार मोड़ सके न कि उस धारा के साथ बहता जाये.

सुनिए.................! टीवी पर शेर दहाड़ने वाला है.



Friday, October 30, 2009

हमारी छाती तैयार है !




लोगों की हालत सच में बहुत खराब है. कई दर्द से तड़प रहे हैं. बहुत सारों को सीने में जलन और आँखों में चुभन की शिकायत हो रही है. कई कलाकारी के कलाकार 'मुझे नींद न आये' के डुएट गा रहे हैं और कुछ इस से भी बढ कर 'मर जावां' गीत के अंतिम अंतरे पर हैं. पर अब कुछ उम्मीद के बादल दिखाई दे रहें हैं. अब इन दर्द से तड़प रहे सज्जनों के दर्द की दवा का प्रबंध होने के आसार हैं.

इन सबों की तकलीफ का कारण और निदान एक बुड्ढा है. मुयाफ़ कीजियेगा, एक सम्मानित सज्जन हैं जो एक कलाकार हैं. वोह बहुत सुन्दर चित्र बनाते हैं. खासकर लोगों के माँओं के. नहीं नहीं हिंदूं लोगों की माँओं के. परन्तु इन की विशेषता नंगे  चित्रों बनाने में ही है क्योंकि वो ही आर्ट है. हाँ अगर अपनी अम्मा या बहन की पेंटिंग बनानी हो तो आर्ट के मायने बदल जातें हैं. फिर यह उन की एक ऊँगली भी नंगी नहीं दिखाते. सच ही यह बहुत महान कलाकार हैं. कुछ सरफिरे, मार्डन आर्ट से अनपढ़ तथाकथित हिन्दुओं ने इन पर इतने मुकद्दमे कर दिए कि इन साहब को विदेश भागना पड़ा.  उन हिन्दुओं को इतना नहीं पता कि हिन्दु धर्म कितना सहिष्णु है. कोई चाहे जितना भी जूते मरता रहे, अपमान करता रहे, सहिष्णुता के नाम पर उसे दांत निकाल निकाल कर सहते रहो यही हिंदुत्व है. बरखा दत्त सरीखे कितने ही बुद्धिजीवी इन अनपढों को समझाते हैं पर यह धर्म के ठेकेदार अपनी दुकानदारी चमकाते रहते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह कभी नहीं समझ सकते. बेवकूफ लोग !

अब हुसैन साहब तो अपनी दाढ़ी में हाथ फेरते निकल गए और जिन बुद्धिजीवी लोगों की व्यक्तिगत  माँओं के नंगे चित्र बनाने का वायदा (अडवांस लेकर) वो कर गए थे उन लोगों के दिल हुसैन की याद में तड़प तड़प कर ब्लड प्रेशर बढा रहे थे. वो लोग तब से उन के वापिस आने कई राह देख रहे थे और उन पर मुकद्दमे करने वालों को बददुया देते ठंडी आहें भर रहे थे. भारत की सम्पूर्ण कला हुसैन के बिना किसी कोने में बैठी बलगम वाली खांसी खांस रही थी और भारत की 'सेकुलर' छवी' (जो हिन्दु अस्मिता के अपमान की टानिक पर ही जिन्दा है) धूमिल हो रही थी.  अच्छा है उन्होंने हिन्दु देविओं के ही अश्लील चित्र बनाये और केवल मुकद्दमे ही झेले क्योंकि अगर उन्होंने किसी मुस्लिम या सिख गुरु का ऐसा अपमान किया होता तो मुकद्दमे की नौबत ही न आती और तब न ही किसी बुद्धिजीवी ने आर्ट या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करनी थी.  इतना तो हुसैन भी समझतें हैं इसी लिए तो धडाधड चित्र पर चित्र बनाते रहे.

खैर सुना हैं अब हुसैन साहिब वापिस आ रहें हैं. अब इतने सारे बुद्धिजीवियों  की आत्माविहीन देहों को चैन मिल जायेगा. अब और कई ड्राइंग रूम हुसैन के पेंटिंग से सज अपनी आधुनिकता का परिचय दे इठला सकेंगे. जो हुसैन से चिढतें हैं चिढतें रहें, काले झंडे दिखाते रहें, इस से ज्यादा क्या उखाड़ लेंगे? आखिर
 देश की कला और सेकुलरता जयादा महंगी है. जितनी कीमत सारे हिन्दु धर्म की श्रद्धा की नहीं उस से सौ गुना महंगी तो हुसैन की एक पेंटिंग बिकती है. इस लिए आप भाड़ में जाईये और हुसैन की गजगामिनी बनाने आयी इस षोडशी को आगे आने दीजिये.

 आईये हुसैन जी आईये और हमारी छाती पर मूंग दलिये. क्योंकि हम हिन्दु हैं, सहिष्णु हैं, समझदार हैं. हम कानून अपने हाथ नहीं लेंगे.

कहते हैं समझदार की मौत है.





Sunday, October 4, 2009

शरद पूर्णिमा का चाँद !




कल रात चाँद पूरी तरह दहक रहा था. और दहकता भी क्यों नहीं, आखिर शरद पूर्णिमा का चाँद था. वो भी भला हो बिजली विभाग का जिस ने एक डेढ़ घंटा बिजली गुल कर पूर्णिमा की चांदनी का आनंद दिलवा दिया. बीच बीच में छोटे मोटे बादल भी चंद्रमा के साथ आँख मचोली खेलते रहे पर 'शशि जी' अपनी आभा से हमें सराबोर करते ही रहे. इतना ही नहीं मुझे अपनी छवि सहेजने की भी अनुमति प्रदान की.



आधी रात को कौमुदी में नहाई खीर खाई तो देखा चाँद ने अपना रंग उस खीर में उतार दिया था.




Friday, April 10, 2009

'मित्तर प्यारे नू'


जीवन में जरा सी विषम परिस्थिति आने पर हम लोगों का ईश्वर पर विश्वास डगमगाने लगता है। "हम ने तो किसी का कभी बुरा नहीं किया फिर भगवन हमारे साथ ये अन्याय क्यों कर रहा है? हमारा तो भगवान ने भी साथ छोड़ दिया !" इत्यादि इत्यादि प्रलाप हम करना शुरू कर देते हैं। अगर यह विषम परिस्थितियाँ और अधिक कठिन हो जायें तो लगता है सारा उसी भगवान का षडयंत्र है, हम अपने को ईश्वर के ही विरुद्ध खड़ा पाते हैं ।

गुरु गोबिंद सिंह जब मुगलों के विरुद्ध संघर्षरत थे तो चमकौर साहिब के किले में औरंगजेब की फौज ने गुरूजी को उन के केवल चालीस साथियों सहित घेर लिया। उन के दो तरुण बेटे अजीत और जुझार इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक अन्य साथी लड़ाई में काम आए। जिस किले में गुरु जी और उन के शिष्यों ने मोर्चा बना रखा था उस का मुग़ल सेना के हस्तगत होना तय था। अपने बचे हुए पाँच शिष्यों के तीव्र आग्रह पर गुरु गोबिंद जी ने अनमने रातों-रात वेश बदल उस किले से निकल जाना स्वीकार किया। किले से निकल दिसम्बर की कड़कती ठण्ड में, बहुत दिनों तक गुरूजी जंगलो में अकेले भटकते रहे। मुगलों के विरुद्ध अपने लंबे संघर्ष में, अपने पिता, अपने चारों पुत्रों और अनगिनत शिष्यों के बलिदानों के बावजूद राष्ट्र, समाज और धर्म की अस्मिता विदेशी आक्रान्तायों के पैरों तले कुचली जा रही थी। आशा की कोई किरण नहीं थी। मुगलों के विरुद्ध हिंदुस्तान का युद्ध पराजय की ओर अग्रसर था, उस कठोर समय में गुरूजी की मानसिक परिस्थिति क्या रही होगी, यह उनके श्रीप्रभु को लिखे कई शब्दों में प्रर्दशित होता है। जिन में से एक मुझे बहुत प्रिये है।


मित्तर प्यारे नू, हाल मुरीदां दा कहिना ॥


तुध बिन रोग रजाईयां दा औडन, नाग निवासां दे रहिना ॥


सूल सुराही खंजर प्याला बिंग कसाइयां दा सहिना ॥


याराडे दा सानु सथ्थर चंगा पठ खेड़यां दा रहिना ॥


मेरी सीमित क्षमतानुसार इस में गुरुजी अपने उन साथियों को जो प्रभु चरणों में लीन हो गए को स्मरण कर उन से भगवान् को अपनी दशा बताने का अनुरोध कर रहे हैं : प्रिये मित्र (प्रभु) को भक्तों की दशा बताना। आप (प्रभु) बिना रजाई रोग और घर जैसे नागों के बीच रहना है । सुराही कांटे और प्याले खंजर से तेजधार हैं, (आप की अनदेखी) जैसे कसाई के हवाले होना। मित्रों (प्रभु) के घास-फूस के बिस्तर के आगे हमें महल भी आग की भट्ठी जैसे हैं।






इतनी घोर विषमता में भी उनका विश्वास ईश्वर पर अटल रहा। 'नानक नाम जहाज़ है' फ़िल्म में मोहम्मद रफी ने अपनी मोहक आवाज़ में इस शब्द को बहुत सुंदर गाया है। जिन्दगी में सब कुछ खो कर भी अपनी आशा और विश्वास बनाये रखने का गुरु गोबिंद जी का संदेश सुन मन को बहुत संबल मिलता है।



Thursday, April 2, 2009

चार पंक्तियाँ !

कल शाम हमारे शहर में पंडित हरी प्रसाद चौरसिया जी का बांसुरी वादन था। नवीन (एक हमफितरत मित्र) को फ़ोन किया तो उन्होंने असमर्थता जताते सुचना दी कि सांय ७:०० बजे से आस्था चैनल पर स्वामी रामदेव जी द्वारा प्रायोजित वीर रस कविता गायन का कार्यक्रम वो छोड़ना नहीं चाहते और साथ ही मुझे भी सपरिवार रात्रि भोज पर वो कार्यक्रम देखने का निमंत्रण दे डाला। नवरात्रों के उपवासों (मित्रगण जानते हैं कि यह उपवास मेरे लिए कितने भारी होतें हैं) के चलते मैं यह स्नेहिल निमंत्रण नहीं ले पाया परन्तु अपने घर कार्यक्रम देखने का तय किया। अब यह अलग विषय है कि मैं अपने ऑफिस से साढ़े आठ से पहले न निकल पाया।


घर जा टीवी लगाया तो कार्यक्रम जोर शोर से चल रहा था। मंच पर स्वामीजी के साथ कई विख्यात- कुख्यात कवि बैठे थे। आज कल टीवी -शीवी पर ज्यादा कवि सम्मलेन नहीं आते जिन कारण मंच प्रतिष्ठित अधिकाँश सज्जनों के नाम मैं नहीं जानता था । उस समय एक युवा कवि ने अपना पाठन समाप्त ही किया था और उन की कविता पाठन की समाप्ति ने मंच संचालक कवि श्री हरी ओम पंवर जी के चेहरे पर असीम चैन का रंग बिखेर दिया। मेरे मन में हर विधा के कलाकारों के लिए असीम सम्मान है, (इस का एक कारण मेरा Gemini होना भी हो सकता है, बचपन में गलती से मैंने लिंडा गुडमैन नामक एक वुमैन की किताब पढ़ ली थी जिस में उन्होंने संसार की कोई कला ऐसी न छोड़ी जो एक जैमिनी में न हो। बस तभी से मुझे हर कला से लगाव हो गया और इन वर्षों में मुझे अपने में किसी कला का कोई 'Master' तो न दिखायी दिया लेकिन 'Jack of All' सुबह शाम मिलता हैं ) और यह सम्मान कविओं के लिए विशेष है अब चाहे अपने निजी जीवन में वो कितने ही आलतू- फालतू ही क्यों न हों। मैं अपने को कवि सपने में भी नहीं समझता। दूर-दूर तक मेरे में यह हूनर नहीं है। ये अलग बात है की सुंदर बालायों (बलायों' भी पढेंगे तो चलेगा) की कुछ वाह-वाही लुटने के लिए मैंने भी कुछ शब्दों के हेर फेर करना सीख लिया है। परन्तु मैं ही जानता हूँ कि इन तथाकथित कवितायों में स्वाभाविक काव्य न हो कर गणित का ही जोड़-तोड़ है।


खैर बात हो रही थी पंवर जी के राहत भरे श्वास की। कलिष्ठ शब्दों में प्रसंशा की मिश्री के साथ साथ उन की आँखें उस युवा कवि को इतना समय लेने की लिए वहीँ भस्म कर देने को जल रहीं थीं। अब एक प्राचीन कवि ने वीर रस टपकाने के लिए स्टार्ट लिया तो लगा कि अगर सन ६२ में उन ने यह प्रयास किया होता तो शायद हम चीन युद्ध जीत गए होते। इस 'ड्रोन युद्ध' के वातावरण में उन के फेफडे उन का साथ नहीं दे पा रहे थे। कपड़े वगैहरा बदलने से निवृत हो जब मैं दुबारा सुनने बैठा तो पंवर जी जिस कवि को 'शमा' के आगे आने का निमंत्रण दे रहे थे वो भी एक ज्वलनशील युवा थे और उन के नाम के आगे डॉक्टर भी लगा था। (पूरा नाम नहीं लिखूंगा, सुना है आजकल ब्लोगरों पर भी केस हो जाता है) अब इस निमंत्रण में आग्रह कम और कम समय लेने का क्रुदन बार बार था। यह कवि लोग भी अजीब झक्खी होतें हैं। मंच के पीछे तो यह एक दूसरे का गला काटने को तत्पर होते हैं और मंच पर 'तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूँ' के निर्मल सिद्धांत के तहत एक-दूसरे की उन कवितायों पर वाह-वाह की बौछार करते हैं जो इन्होने हजारों बार सुन रखी होती हैं ।


पंवर जी हर कवि को कम से कम समय लेने और बिना भूमिका के सीधा कविता पर आने का आग्रह करते तो दूसरी और स्वयं भूमिका बांधने में पूरा समय लेते। एक अन्य विषय इन कवियों के ऊपर अन्वेषण का है कि हर कवि अपनी विदेश यात्रायों का जिक्र जरूर करता है। पंवर जी ने भी किया तो उन के मुकाबले में इस युवा कवि ने अपने चक्कर लगाये प्रत्येक देश के शहरों की गिनती गिना दी। अपनी भूमिका में उस कवि ने संचालक के सीधा कविता पाठन की याचना की धज्जियाँ उड़ा दीं। उस के बाद भी अपनी प्रत्येक चार पंक्तियों में वो कवि जी हर पंक्ति के बाद दो पंक्तियों में जनता से समर्थन देने का आग्रह और न मानने पर खानदान तक पहुँचने की धमकी भी देते। राम-राम करते उन की कविता समाप्त हुयी ही थी कि इस अवसर की ताक में बैठे संचालक ने तपाक स्वामी रामदेव जी की दुहाई दे एक विशेष कविता पढ़ उनसे अपना पाठ समाप्त कर युद्ध विराम का पुन: असफल प्रयास किया। परन्तु इस कवि ने ठान रखा था चाहे जो हो जाए मैंने इस साले संचालक की कोई नहीं सुननी और अपनी ही सुनानी है। 'लाइव' कार्यक्रम में इस रस्सा-कशी ने पूरे कार्यक्रम को भोंडा बना दिया। मेरा सारा उत्साह इन कवियों की अनुशासनहीनता ने रद्दी की टोकरी में डलवा दिया। इस अवसरवादिता के बेशर्म प्रदर्शन में उस कवि की कवितायों का एक शब्द भी हृदय में न उतर सका। (और मैं जानता हूँ की वो एक अच्छा कवि है) अपना पूरा समय लेने के बाद उस कवि ने अपनी वेबसाइट का ब्योरा दे अपना विज्ञापन भी जारी कर दिया। अब किसी और कवि को सुनने का मेरा कोई इरादा नहीं था और न ही इस कवि का जो दूसरे कविता-पाठों के समय मंच पर अपने मोबाइल से खेलने का काम करता रहा।

समाज की कुसंगातियों को अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को दिशा देने का काम यह कवि करते हैं। परन्तु अपने ऐसे प्रदर्शन से इन की छवि उस दिशा-सूचक पट्ट से अधिक नहीं रहती जो राहगीर को दिशा ज्ञान तो देते हैं लेकिन स्वयं सारा जीवन उसी खूंटी पर टंगे रहते हैं ।

मेरा यह रोष केवल ऐसी घटनायों के प्रति है। अन्यथा ऐसे बहुत से कवि/लेखक हैं जिन से मैं प्रेरणा और संबल प्राप्त करता हूँ।