लगभग पचहतर वर्ष की आयु वाले नरेश के पिता काफी सजग व सक्रिय लग रहे थे। नरेश के गांव में उस के घर जलपान हेतु हम लोग जब अतिथि कक्ष में बैठे थे तो वो हमारे बीच आ बैठे । अपने दांत विहीन पोपले मुंह से जब उन्होंने बातें सुनानी शुरू की तो हम लोग चाय पीना भूल गए । काशी से पहली बार हिमाचल के किसी गांव में आए हमारे एक मित्र ने जब दुर्गम हिमाचली क्षेत्रों में भी साक्षरता पर विस्मय प्रकट किया तो नरेश के पिता ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के विषय में अपने दादा की बात बताई जिन्होंने "श्री गणेशाय नमः" से उन की शिक्षा शुरू की। उन के अनुसार उन दिनों 'ग' से 'गणेश' होता था और आजकल 'ग' से 'गधा' । अंग्रेजी वर्णमाला पर व्यंग करते हुए उन ने कहा देखो ये सारी जानवरों से भरी पड़ी है , शुरुआत ही गधे के नाम ( a for ass) से होती है।
"और आप का स्वास्थ्य कैसा रहता है", मैंने पूछा । " अपने स्वास्थ्य का क्या है, मनुष्य अपने जीवन में कुल चार योनिओं से गुजरता है"। उन्होंने मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर न देते हुए नयी बात शुरू की। "अपने जीवन के मात्र प्रथम पच्चीस वर्ष ही वो मनुष्य का जीवन जीता है। नरेश तो खैर अठाईस साल का हो गया । परन्तु विवाह से पहले मानव मानव की योनि में रहता है। विवाह की गृहस्थी में जुतने पर उस की योनि बैल की हो जाती है। घर परिवार का बोझ, काम काज की चिंता, बच्चों व पत्नी की आवश्य्कतायों को पूरा करने के लिए उसे हल में जुते बैल जैसे ही श्रम करना पड़ता है। उस के पश्चात् जब बच्चे बड़े हो जातें हैं और अपनी मनमानी करते पिता की नहीं सुनते, पत्नी भी इतने वर्षों में पति की परवाह करना कम कर देती है तो व्यक्ति सारा दिन बस भोंकता ही रहता है। पर उस की सुनता कोई नहीं तब यह तीसरी योनि होती है।" वो केवल कथा ही नहीं सुना रहे थे बल्कि साथ साथ अभिनय भी कर रहे थे। हम लोग हंस हंस कर लोट पोट हो रहे थे।
"और चौथी योनि?" हम में से किसी से उत्सुकता से पूछा , कोई भी इतनी रोचक बात का क्रम टूटने नहीं देना चाहता था । "चौथी योनि में कानों से सुनायी नहीं देता, आंखों से दिखायी नहीं देता, रात को नींद नहीं आती । व्यक्ति गर्दन झुकाए बैठा रहता है, कोई उस के आस पास आना नहीं चाहता। यह उल्लू की योनि होती है।" उन्होंने भी उसी लय में अपनी बात का क्रम जारी रखा। वो उसी प्रकार का अभिनय करते हुए हंस रहे थे। "तो मैं आजकल उल्लू की योनि में हूँ। पहले जब लोग यह बात सुनाया करते थे तो मैं भी उन पर हंसा करता था पर अब अनुभव करता हूँ यह सत्य सिद्ध बात है। कहतें हैं न, बुजुर्गों का कहा और आंवले का खाया बाद में ही पता चलता है" नरेश के पिता जी अपनी बात पूरी की। इसी के साथ ही किसी ने भोजन वितरण आरंभ होने की सूचना दी और हम लोग उठ खड़े हुए ।