Sunday, April 27, 2008

बात पते की !

"अपने जीवन में ही मनुष्य चार योनियों को प्राप्त करता है।" नरेश के पिता जी ने बताया।

लगभग पचहतर वर्ष की आयु वाले नरेश के पिता काफी सजग व सक्रिय लग रहे थे। नरेश के गांव में उस के घर जलपान हेतु हम लोग जब अतिथि कक्ष में बैठे थे तो वो हमारे बीच आ बैठे । अपने दांत विहीन पोपले मुंह से जब उन्होंने बातें सुनानी शुरू की तो हम लोग चाय पीना भूल गए । काशी से पहली बार हिमाचल के किसी गांव में आए हमारे एक मित्र ने जब दुर्गम हिमाचली क्षेत्रों में भी साक्षरता पर विस्मय प्रकट किया तो नरेश के पिता ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के विषय में अपने दादा की बात बताई जिन्होंने "श्री गणेशाय नमः" से उन की शिक्षा शुरू की। उन के अनुसार उन दिनों 'ग' से 'गणेश' होता था और आजकल 'ग' से 'गधा' । अंग्रेजी वर्णमाला पर व्यंग करते हुए उन ने कहा देखो ये सारी जानवरों से भरी पड़ी है , शुरुआत ही गधे के नाम ( a for ass) से होती है।


"और आप का स्वास्थ्य कैसा रहता है", मैंने पूछा । " अपने स्वास्थ्य का क्या है, मनुष्य अपने जीवन में कुल चार योनिओं से गुजरता है"। उन्होंने मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर न देते हुए नयी बात शुरू की। "अपने जीवन के मात्र प्रथम पच्चीस वर्ष ही वो मनुष्य का जीवन जीता है। नरेश तो खैर अठाईस साल का हो गया । परन्तु विवाह से पहले मानव मानव की योनि में रहता है। विवाह की गृहस्थी में जुतने पर उस की योनि बैल की हो जाती है। घर परिवार का बोझ, काम काज की चिंता, बच्चों व पत्नी की आवश्य्कतायों को पूरा करने के लिए उसे हल में जुते बैल जैसे ही श्रम करना पड़ता है। उस के पश्चात् जब बच्चे बड़े हो जातें हैं और अपनी मनमानी करते पिता की नहीं सुनते, पत्नी भी इतने वर्षों में पति की परवाह करना कम कर देती है तो व्यक्ति सारा दिन बस भोंकता ही रहता है। पर उस की सुनता कोई नहीं तब यह तीसरी योनि होती है।" वो केवल कथा ही नहीं सुना रहे थे बल्कि साथ साथ अभिनय भी कर रहे थे। हम लोग हंस हंस कर लोट पोट हो रहे थे।


"और चौथी योनि?" हम में से किसी से उत्सुकता से पूछा , कोई भी इतनी रोचक बात का क्रम टूटने नहीं देना चाहता था । "चौथी योनि में कानों से सुनायी नहीं देता, आंखों से दिखायी नहीं देता, रात को नींद नहीं आती । व्यक्ति गर्दन झुकाए बैठा रहता है, कोई उस के आस पास आना नहीं चाहता। यह उल्लू की योनि होती है।" उन्होंने भी उसी लय में अपनी बात का क्रम जारी रखा। वो उसी प्रकार का अभिनय करते हुए हंस रहे थे। "तो मैं आजकल उल्लू की योनि में हूँ। पहले जब लोग यह बात सुनाया करते थे तो मैं भी उन पर हंसा करता था पर अब अनुभव करता हूँ यह सत्य सिद्ध बात है। कहतें हैं न, बुजुर्गों का कहा और आंवले का खाया बाद में ही पता चलता है" नरेश के पिता जी अपनी बात पूरी की। इसी के साथ ही किसी ने भोजन वितरण आरंभ होने की सूचना दी और हम लोग उठ खड़े हुए ।



Saturday, April 26, 2008

वाह विवाह !

यूं हिमाचल के किसी सुदूर गाँव के कोई विवाह समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए नई बात नहीं है परन्तु इस बार नरेश के विवाह पर मन में कई विचार उठे।


वैसे तो सोचने में ये ओछा ही लगता है, पर मैं उस विवाह पर आए संभावित खर्च के विषय में सोच रहा था। बात केवल नरेश के विवाह की नहीं है। प्राय: सभी हिमाचली ग्रामीण विवाह अत्यंत सादे व तड़क भड़क से परे होतें हैं। बहुत अधिक लेनदेन नहीं होता, कपड़े लत्ते या आभूषण अपने सामर्थ्य अनुसार और संगीत के नाम पर कान फोडू , कर्कश और भद्दे फिल्मी गानों की बजाय स्थानीय कर्णप्रिये लोक संगीत ही होता है। दावत पर खिलाए जाने वाली धाम में भूमि पर आसीन आतिथिओं को सदैव पत्तल में दाल भात ही रहता है चाहे किसी भी स्तर का व्यक्ति क्यों न हो। तो फिर चाहे कितने भी बाराती हों, मेजबान की जेब और चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। अन्यथा भी स्नेहपूर्वक खिलाए जाने वाला साधारण दाल भात, धक्के मुक्की से प्राप्त होने वाले छप्पनभोगों से कहीं अधिक स्वादिष्ट व तृप्तिदायक होता है।


खैर बात हो रही थी शादी पर आने वाले खर्चे की। मेरे अनुमान से इस विवाह पर अधिक से अधिक तीस या चालीस हजार का व्यय हुआ होगा। ऐसा नहीं है कि यह परिवार संपन्न या शिक्षित नहीं था, वर स्वयं अधिवक्ता, उस का अग्रज निर्माण विभाग में अभियंता तथा पिता सेवानिवृत सरकारी अधिकारी थे। परन्तु सादगी ग्रामीण क्षेत्रों में दैनिक जीवन पद्दति है।


लेकिन क्या हम कल्पना कर सकते हैं इस प्रकार की सादगी शेष उत्तर भारत में? विशेषकर पंजाब में अनावश्यक दिखावा बहुत अधिक है। नगरीय या ग्रामीण, प्रत्येक स्थान पर मिथ्या एश्वर्य का प्रदर्शन बेहूदगी की सीमा लाँघ जाता है।ऋण में सर तक डूब कर ही क्यों न अपनी शान बघारी जाए पर खर्चा लाखों करोडों से कम नहीं होना तय है । नवीनता के नाम पर नए नए प्रयोग हो रहें हैं। अतिथिओं के मनोरंजन के लिए अशलीलता के दरबार लगे मिलते हैं। हजारों तरह के व्यंजन व पकवान होतें हैं पर उन का सेवन वही कर सकता है जिस ने अपनी गरिमा बेच खायी हो और चील से झपट्टा मारने की कला सीखी हो। शालीन अतिथि को तो भूखे पेट ही वापिस लौटना पड़ता है। आजकल तो एक नया प्रचलन चल पड़ा है कि लड़की दुल्हे को ब्याहने अपने ससुराल बारात लेकर आती है। अंतत: इस नवीन प्रथा के पीछे भी आर्थिक पहलू ही काम कर रहा है। छोटे छोटे गांवों में भी दहेज़ को लेकर झगडे हो रहें हैं। जहाँ तक मुझे ध्यान आता है, मैंने कभी हिमाचली गांव में दहेज़ संबंधित विवाद नहीं देखा।


यहाँ मुझे 'God Must Be Crazy' नामक फ़िल्म में वह आदिवासी परिवार की याद आती है जो 'जंगली' हो कर भी पूर्णतया: प्रसन्न और संतोषी था, परन्तु एक दिन किसी पायलट द्वारा फेंकी गयी कोला की खाली बोतल के कारण झगडे का केन्द्र बन जाता है, और फिर उस परिवार का मुखिया उस 'मुसीबत की जड़' बोतल को दुनिया के अन्तिम किनारे से नीचे फेंकने का संकल्प लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा पर पैदल निकल पड़ता है।


तो शायद हम लोग भी आधुनिकता व तथाकथित शिक्षित होने के ढोंग में अपना जीवन जंजाल बना रहें हैं। हर कोई मन में कुछ, चेहरे पर कुछ और वाणी में कुछ और लिए बनावटी जिन्दगी जी रहा है तथा इस आपाधापी में अपनी सही पहचान भूल गया है। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि आजकल घर से निकलने के समय हमें कितनी सारी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है, रुमाल, चश्मा, चाबियाँ, घड़ी, मोबाइल, लैपटॉप, पर्स इत्यादि। सूचि और भी लम्बी हो सकती है लेकिन इस से कम तो कदापि नहीं। इन में से एक भी छुटने पर हम सारा दिन अपाहिज सा अनुभव करतें हैं। तो यह वस्तुएं हमारी सुविधा के लिए हैं या हम इन के गुलाम? लगता तो गुलामों वाला मामला ही है। यह हमारे लिए नहीं हम इन के लिए हो गए हैं। और कुछ लोग मात्र एक धोती लोटे में भी 'झकास' जीवन जीतें हैं।


साधू हो जाना सभी के लिए सम्भव नहीं है और न ही आवश्यकता, परन्तु इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ झूठे दिखावे को त्याग यथासंभव सादगी पूर्ण जीवन जीने का प्रयास तो हम कर ही सकतें हैं। एक दो दिन कर देखें शायद सच ही हम परम संतोष अनुभव करें, देखें कहीं 'गाय न बच्छी नींद आए अच्छी ' कहावत चरित्रार्थ हो जाए।



Monday, April 14, 2008

मानव आयु !

आज एक बहुत ही असमंजसपूर्ण स्थिति का गवाह बना । लगभग १०० वर्षों के एक वयोवृद्ध का भविष्य तय हो रहा था। सुनने में बहुत आश्चर्य लगता है, १०० वर्षों की आयु वाले परिपक्व व्यक्ति का भविष्य ? परन्तु यह सही है।

दरअसल उस वृद्ध के लगभग ६० वर्ष की आयु वाले पुत्र का देहांत हो गया । वह वृद्ध अपने उसी पुत्र के साथ रहता था। उस वृद्ध के अन्य जीवित दो पुत्रों में से एक को अपने व्यापार से फुर्सत नहीं तथा दूसरे पुत्र ने सन्यास ग्रहण कर अपना घर बार छोड़ रखा है। वृद्ध की पत्नी की भी मृत्यु हो चुकी है तथा उस के पौत्र अपने अपने कार्यों से अन्य नगरों में रहतें हैं। तो अब यह बुजुर्ग कहाँ रहेंगे , यह उस समय का यक्ष प्रश्न था ।

समस्या केवल इतनी ही नहीं थी, समस्या मृतक की विधवा की भी थी। परन्तु मेरा मन तो उस वृद्ध के विषय में ही सोच रहा था। इतनी आयु में पहले तो पत्नी के छोड़ जाने का अकेलापन, और फिर अपनी आंखों के समक्ष अपने पुत्र की मृत्यु । इतना ही नहीं तो अपनी ही संभाल कर पाने में शारीरिक असमर्थता , याने दैनिक नित्यकर्मों में किसी अन्य व्यक्ति की सहायता की दरकार। तो क्या इतनी लम्बी आयु वरदान हैं या श्राप ? आख़िर मानव आयु कितनी होनी चाहिए ?

विदेशों की विभिन्न व्यवस्थाओं की बात न करके अगर केवल भारतीय समाज का सोचें, जो अभी तक न पूर्ण रूप से अपनी प्राचीन परम्पराएँ त्याग पाया है और न ही पूर्णतया विदेशी चलन अपना सका है, तो यही मन में आता है कि आयु उतनी ही हो जितनी देर अपने हाथ पांव चलते हों या संतान के संस्कार ऐसे हों कि जीवन पर्यंत वह अपने बुजुर्गों की सेवा करें ।


वहाँ से लोटने के बाद भी आंखों के सामने उन्ही वृद्ध का चित्र आ रहा है जैसे पूछ रहें हों "मैं अवांछित क्यों हूँ, अगर मेरी आयु लम्बी है तो इस मेरा क्या दोष है ?"



Saturday, April 12, 2008

चिंता या चिंतन !


ज्ञानी जन कहते हैं कि सब प्रभु पर छोड़ दो, एक क्षण की भी चिंता न करो । तथा दूसरी और उन का कहना है कि भगवान उन की सहायता करतें हैं जो अपनी सहायता स्वयं करतें हों ।

तो अपनी सहायता करने के लिए समस्या के समाधान हेतु विचार तो करना ही पड़ेगा और विचार करते समय समस्या का आगा पीछा, उस के संभावित उपाय या उन उपायों की अनुपस्थिति में आने वाले परिणाम व दुष्परिणाम सब ही तो सोचने पड़ेंगे । अब इस विचार श्रृंखला में कब मन चिंतन से चिंता में प्रवेश कर जाता है पता ही नहीं चलता। चिंता व चिंतन का अन्तर रख पाना तभी तो सम्भव है जब आप इन दोनों को पृथक रखें, परन्तु इन दोनों को पृथक रखना जैसे धूप और छाया को अलग करने जैसा टेढा काम है। चिंतन करते करते चिंता शुरू हो जाती है और शुरू हो जाती है एक नवीन समस्या जो उस चिंता के कारण होती है । तो माने यह कि चिंता से बचने के लिए इस अन्तर का बना रहना अति आवश्यक है।

अब इस अन्तर को बनाये रखना भी एक समस्या ही है, आप को हर समय ध्यान रखना होगा की आप यह अंतर बनाये रखें। तो इस का अर्थ यह रहा कि चिंता से बचने के लिए एक नयी चिंता पालनी पड़ेगी। तो अब इस नई चिंता की चिंता कौन करेगा, यह भी एक चिंता का विषय है ।



Sunday, April 6, 2008

शुभ कामनाएं

हिन्दु नव वर्ष २०६५ की हार्दिक शुभ कामनाएं !