Tuesday, December 16, 2008

'जाति ऊँची रहे हमारी'

चेन्नई के एक विधि कॉलेज में हाल ही में हुए छात्रों के जातीय संघर्ष का विडियो देख मैं सन्न रह गया। कारण चाहे जो भी रहा हो, अपराधी या पीड़ित चाहे किसी भी जाति का थे वो दृश्य बहुत ही हृदयविदारक थे। मैं अपने को काफी मजबूत हृदय का मानता हूँ और सामान्यत: रक्त देख कर मेरा मन विचलित नहीं होता परन्तु इन दृश्यों को मैं पूरा नहीं देख पाया। आधे में ही मुझे पानी पीने को उठाना पड़ा। कोई भी सुशिक्षित (वो भी विधि के छात्र) व्यक्ति इतना निर्मम, क्रूर और जंगली हो सकता है, विश्वास नहीं होता। बर्बरता में आदमयुग को भी पछाड़ दिया भारत के इन होनहार भविष्य के वकीलों ने।



पिटने वालों में अगर भारतीय छात्रों की जगह आतंकवादी होते तो शायद मुझे तसल्ली होती परन्तु दुःख तो इस बात का है कि यहाँ तो दोनों पक्ष ही 'भारत का भविष्य' थे। आपस में ही लड़ मरने वाले इन भारतीय तरुणों के लिए किसी ऐ के ४७ वाले आतंकवादी की क्या जरूरत है ? भारत को तबाह करने के लिए ऐसे दो चार कॉलेज और उन के ऐसे विद्यार्थी ही पर्याप्त हैं। इस पशुवृति वाले विद्यार्थी आगे चल न्याय अन्याय का विचार कर समाज का उत्थान करेंगे या दिन रात ऐसी ही घटनायों की कामना और सहयोग कर अपनी चांदी कूटने की जुगाड़, अंधे को भी दिखायी देता है। कॉलेज के नाम मात्र के लिए वहशी कुत्तों की तरह लड़ने वाले यह होनहार अपने नाम तक को तो सार्थक कर नहीं सकते यह तह है।


इस शर्मसार करने वाली घटना का दूसरा पक्ष चेन्नई की पुलिस है। पुलिस के दलबल के सामने ही छात्र हत्या का प्रयास करते रहे और पुलिस अधिकारी संतोष की साँस लेते शायद प्रिंसिपल के फ़ोन की प्रतीक्षा करते रहे। पर इन पुलिस वालों को भी अपराधी क्यों ठहराना, इन लोगों का भी कोई दोष नहीं । आख़िर यह लोग भी तो ऐसे ही कॉलेज स्कूलों की पैदाइश हैं। लड़ने वाले इन विद्यार्थियों का भविष्य का चरित्र हम इन पुलिस अधिकारीयों में साफ साफ देख सकते हैं। 'देश और समाज जाए भाड़ में, मेरा घर पूरा होना चाहिए' इन का धेयय रहने वाला है।


आखिरकार इस सब का दोषी कौन है ? हमारे स्कूल कॉलेज में क्या शिक्षा दी जा रही है? इस की चिंता शायद किसी को नहीं है। माता-पिता को पैसे कमाने वाली मशीन चाहिए, राजनीतिज्ञों को शिक्षा को भगवेकरण से बचाने की चिंता है और शिक्षाविदों को राजनीतिज्ञों की चापलूसी कर अपना घर चलाने की। एक ही चक्र घूम रहा है और इस चक्र में हमारी भावी पीढियां अफसर तो बन रहीं हैं पर मानव नहीं।



( हालाँकि मैं सलाह तो नहीं देता पर अगर कोई देखना चाहे तो ये शोर्य गाथा यहाँ उपलब्ध है। )



Tuesday, December 9, 2008

एक और 'स्वर्णभूमि'

अनायास ही अगर हम किसी से "स्वर्णभूमि" अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के बारे पूछें तो अधिकाँश लोग भारत के ही किसी शहर की सोचेगें। परन्तु जानकार लोग जानते हैं कि यह हवाई अड्डा भारत में नहीं बल्कि थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक का हवाई अड्डा है जो कि सन् २००६ में निर्मित हुआ था।


परन्तु मैं बात इस के 'स्वर्णभूमि' नाम की विशेषता की नहीं बल्कि हाल में ही इस के प्रवेश द्वार के सामने स्थापित एक कलाकृति की करना चाहता हूँ। यह सुंदर कलाकृति है, हमारे "विष्णु पुराण" से लिए गए "समुद्र मंथन" का दृश्य। विभिन्न रंगों से चित्रित यह विशाल प्रदर्शनी बहुत मनमोहक है। विष्णु पुराण, श्रीमद भागवत और महाभारत में वर्णन के अनुसार जिस समय असुरों और दैत्यों की शक्ति का उत्थान हो रहा था और देवता वैभवहीन हो रहे थे, उस समय भगवन नारायण के निर्देशानुसार देवों ने असुरों से समझोता कर क्षीर सागर को मथ अमृतपान का निश्चय किया। मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेती बना स्वयं प्रभु विष्णु कच्छप बन मंदराचल के आधार बने तथा देवगण अमृतपान कर पाये। यह सम्पूर्ण दृश्य हम उस एक कलाकृति में देख सकते हैं जिसे देख वहां से गुजरने वाले लोग मंत्रमुग्द्ध हो ठिठक जातें हैं।







परन्तु जो हैरान करने वाली बात है वो यह कि थाईलैंड की मुख्य जनसँख्या हिन्दु नही अपितु मुस्लिम है । यह मुसलमान अपने पूर्वजों के हिन्दु होने का मान रखते हैं तथा हिन्दु संस्कृति को अपनी ही धरोहर मानते हैं। केवल थाईलैंड ही नहीं बल्कि मलेशिया, कम्बोडिया या इंडोनेशिया में भी हिन्दु संस्कृति का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। कम्बोडिया का अंगकोर वाट और इंडोनेशिया की गरुड़ एयरलाइन्स के बारे में हम सब जानते ही है। इतना ही नहीं सामान्य रूप से भी उन समाजों में रामायण महाभारत के चरित्रों की झलक मिलती है और उन पर चित्रित नृत्य या नाटक वहां कभी भी देखे जा सकतें हैं।



परन्तु यक्ष प्रशन यह है कि क्या ऐसा कोई चित्र या कलाकृति भारत के किसी सरकारी भवन की शोभा बड़ा सकती है ? निश्चित रूप से नहीं। "ऐसा कोई भी प्रयास भारत की 'धर्मनिरपेक्ष' संप्रभुता पर खतरा होगा" मानने वालों की ही भारत में बोलबाला है। यह तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' लोग ही हैं जिन ने भारत के मुसलमानों को हिन्दु संस्कृति का भय दिखा अपनी दूकान चला रखी है। और इसी कारण ही भारत का अधिकांश मुस्लिम समाज अपने पूर्वजों के हिन्दु होने के बावजूद अपने को हिन्दु संस्कृति से दूर पाता है। क्या कारण है कि जिस हिन्दु संस्कृति से थाईलैंड का मुस्लिम समाज अपने को गौरवान्वित महसूस करता है (कोई भी शर्मसार करने वाली वस्तु थाई समाज ने स्वर्णभूमि हवाई अड्डे पर न लगाई होती) उसी संस्कृति को भारत का मुस्लिम समाज अपने लिए विष मानता है? शायद न भी मानता हो परन्तु कम से कम हमारे देश का वातावरण ऐसा ही मानने को मजबूर करता है।


(चित्रों के लिए विभिन्न छायाकारों का आभार ! )


Monday, October 27, 2008

Sunday, October 12, 2008

'कूल' युवा !

यह लेख मैं मोटोरोला 'युवा' मोबाइल फ़ोन के उस नवीनतम विज्ञापन को समर्पित करना चाहता हूँ जिस में कक्षा में पढ़ा रहे एक शिक्षक का उपहास किया गया है। सदियों पुरानी घिसी पिटी भारतीय (कृपया यहाँ 'इंडिया' पढ़ें) संस्कृति को चमचमाती सुनहरी पन्नी में लिपटी अमेरिकी संस्कृति (कृपया यहाँ 'कल्चर' पढ़ें ) के समकक्ष खड़ा करने के कुछ लोगों के प्रण के निमित्त यह एक अन्य भगीरथ प्रयास हैं।


अपने बाल्यकाल में अंग्रेजी फिल्मों में जब किसी कक्षा का चित्र देखता था तो बहुत आश्चर्य होता, किस प्रकार विद्यार्थी अपने शिक्षक की उपस्थिति को अनदेखा कर अपने मन की करते थे और शिक्षक एक भोंदू जैसे उन विद्यार्थियों की उपस्थिति को अनदेखा कर श्यामपट पर लिखते रहने का अपना कर्म काण्ड पूर्ण करता रहता। केवल इतना ही नहीं बल्कि इस से भी बढ़ कर शिक्षक के सामने ही छात्र अपनी सहपाठी छात्रा को अपने प्रेम का प्रमाण उस के अधरों पर भी दे देता और देता रहता। इसी तरह की कुछ पावन भावना विद्यार्थी और शिक्षक के बीच में भी देखी जा सकती थी। उस समय वोह सब देख कर मुझे अपने पिछडेपन का तीव्र एहसास होता ठीक उसी तरह जिस प्रकार बीजिंग ओलोम्पिक में चीन के पदक देख किसी भारतीय को होता है। किस प्रकार अमेरिका ने समाज में सारे भेद-भाव दूर कर दिए हैं। छोटे बड़े, ऊँचे नीचे का कोई भेद नहीं। हमारे यहाँ तो वही गुरु शिष्य की धकियानुसी कहानियाँ आज भी चलाने की कोशिश की जा रही थी। खैर अब घबराने और शर्मिंदा होने जरूरत नहीं है, हमारी बासी संस्कृति को अत्याधुनिक सैलून में पेंट पोलिश कर अल्पतम कपडों में सजा कर सेक्सी बनाने का पुनीत कार्य अब बड़े बड़े राष्ट्रभक्तों ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है। अब हम भी सर उठा कर कह सकते हैं कि हम आधुनिक और शिक्षित हो गए हैं अब हम संस्कार - कुसंस्कार के तुच्छ मापदंडों से ऊपर उठ रहें हैं तथा शेष जल्दी ही उठ जायेंगे।


इसी प्रक्रिया के तहत 'कल हो न हो' जैसी फिल्मों में शाहरुख जैसे नवीन देव बच्चों को अपनी दादी में सेक्सी छवि देखने को कहते हैं, इसी योजना के अंतर्गत एक कक्षा में अध्यापिका छात्र द्वारा एक विशेष परफ्यूम लगाने पर अपना चेतन खो देती है और इसी योजना के परिणाम स्वरुप इस प्रकार के प्रेरक विज्ञापन हमारे सामने परोसे जा रहे हैं। एक युक्ति के तहत ही इस वृति के युवा वर्ग को 'कूल' और 'हाट' बताया जाता है तथा अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर विद्यार्थियों को भोंदू। धोनी भी तो कहता है ना, "पढाई में कुछ ख़ास नहीं था"।


परन्तु यहाँ एक बात बहुत ही रोचक और विचारणीय है। क्या एक भी व्यक्ति ऐसे 'कूल' विद्यार्थी जीवन से निकलने वाले डॉक्टर के हाथ में अपना या अपने किसी प्रिये का जीवन देना चाहेगा या ऐसे ही किसी 'हाट' विद्यार्थी से इंजिनियर बने के हाथ अपना ड्रीम प्रोजेक्ट ? शायद कभी नहीं। एक और बात, जिस प्रकार का चित्र हम एक शिक्षक का प्रस्तुत कर रहें हैं कौन समझदार इस क्षेत्र में अपना जीवन नष्ट करने की सोचेगा और क्यों ?




Wednesday, August 20, 2008

छोट्टी बहन !


"आप अपनी सेहत का ध्यान रखा करें। " मेरे मामा ने मेरी मां को आग्रह किया। उस दिन मैंने ध्यान दिया कि वो अपने से छोट्टी बहन को 'आप' कह संबोधित करतें थे। पहले ऐसा नहीं था । पहले वो उन कि छोट्टी बहन ही हुआ करती थीं। मेरी कल्पना में वो भी बचपन में साथ साथ खाते पीते, हँसते खेलते, लड़ते झगड़ते रहे होंगे। छोट्टी बहन की छोट्टी बड़ी जिद्दों को बड़े भाई ने लाड दुलार से पूरा किया होगा। क्या तब भी उन्होंने उसे 'आप' कह पुकारा होगा, मेरे मन ने शुन्य में प्रश्न किया और स्वयं ही उत्तर दिया, 'कभी नहीं'। फिर ये परिवर्तन कब आया होगा ? परन्तु मेरी व्यवहारिक बुद्धि इस का उत्तर जानती थी।


मेरे मामा का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था। पत्नी का परिवार पर अनुचित नियंत्रण था तथा पति हाशिये पर धकेल दिया गया। संतान ने भी पिता का साथ कभी न दिया। दुर्दैव ने परिवार की सारी सुख-समृधि निगल ली। संतानों की शिक्षा, उन की शादियाँ , कारोबार कुछ भी संतोषजनक नहीं था। और फिर एक दिन परिवार ने मेरे मामा को एक प्रकार से अलग कर दिया। अपना बनायो अपना खायो। जीर्ण शीर्ण से हवेलीनुमा पुश्तैनी मकान की निचली मंजिल की अँधेरी कोठरी में वो अपने जीवन के अन्तिम चरण के दिन गुजारने लगे। रिश्तेदारों अपनी सामर्थ्येनुसार सहायता की परन्तु "यहाँ सब के सर पे सलीब है' के नियम के अंतर्गत कौन कितने दिन सहायता कर सकता है। तो कभी कोई तो कभी कोई, उन के दिन, सप्ताह या महीने का प्रबंध कर देता। कभी शहर में सब से अधिक फैशन करने वाला आज रिश्तेदारों या मित्रों के दिए कपडों से गुजरा करता । महीने दो महीने में वो अपनी छोट्टी बहन के पास सहायता के लिए आ जाते और वो अपनी योग्यता अनुसार उन की सहायता कर देती।


और इस अनुकम्पा ने कब 'छोट्टी' को 'आप' बना दिया, शायद किसी को पता ही नहीं चला।



Sunday, July 6, 2008

अमर चित्र कथा


अफजल खान के कटे हुए सर को अपने भाले पर टांग गर्व से विजय प्रदर्शन करते अपने मराठा सैनिकों को देख वीर शिवाजी ने तुंरत उन्हें टोकते हुए कहा, "अपने मृत शत्रु का अपमान करना हमें शोभा नहीं देता। अफजल खान का ससम्मान अन्तिम संस्कार होना चाहिए।" अमर चित्र कथा के शिवाजी अंक के यह शब्द मुझे सचित्र ध्यान हैं। केवल यही नहीं अपितु और भी बहुत से अंक मेरे मन मष्तिष्क पर उन के रंगीन चित्रों सहित गुदे हुये हैं।




राज जी की पोस्ट, चिंतन को पढ़ अमर चित्र कथा मेरी आंखों के आगे घूम गयी। बाल्यकाल में (माशाल्लाह मैं तो अभी भी बालक सा ही अनुभव करता हूँ) मैंने अनगिनत अंक पढ़े होंगे और कई अंक अनगिनत बार पढ़े होंगे। कई कई घंटे मैं उन पुस्तकों से चिपका रहता था। भारतीय इतिहास माला का शायद ही कोई नायक होगा जिस का अंक मैंने नहीं पढ़ा होगा। केवल पढ़ा ही नहीं मेरा बाल मन उन चित्रों को देख उसी प्रवाह में बह जाता था और मैं भी गोरा-बादल जैसे चित्तोड़गढ़ के किले से रानी पद्मिनी पर बुरी नजर रखने वाले अल्लाउद्दीन खिलजी के शिविर पर टूट पड़ने को आतुर हो जाता। मैं भी अपने आप को महिरावण की कैद से रामजी को छुडाने के लिए मक्खी बने हनुमान के साथ उड़ता पाता। नरेन् का सभी से प्रभु देखे होने का प्रश्न करना तथा स्वामी परमहंस का बिस्तरे नीचे धन के कारण चिंहुक उठाने का चित्र आज भी मेरी आंखों के सामने स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसे कई प्रसंग मेरी स्मृति में स्थाई रूप से अंकित हैं। इन्ही के साथ अमर चित्र कथा की जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, हितोपदेश इत्यादि सम्मिलित हैं। मुझे ध्यान हैं कि मेरे पिता जी ने उस समय मेरे लिए किराये पर पुस्तकें पढने के लिए मासिक शुल्क की व्वयस्था कर रखी थी।





और केवल अमर चित्र कथा ही नहीं, बल्कि नंदन, चंदामामा, बाल-भारती की छोटी व् सरल जीवनियाँ मेरी पठनीय पुस्तकों में थी। ऐसा नहीं है की मैंने चलता फिरता प्रेत बेताल या जादूगर मेंड्रेक या फ्लैश गोर्डोन या जासूस रिप किर्बी या बहादुर या मधु मुस्कान और टिंकल का कोई भी अंक छोड़ दिया हो परन्तु अमर चित्र कथा का स्थान मेरी पढ़ी पुस्तकों में सब से ऊँचा है। भारतीय बाल वर्ग को अमर चित्र कथा एक अनमोल उपहार है और अगर इन पुस्तकों को भारतीय शिक्षा पद्दति में जोड़ दे तो मैकाले विष से ग्रसित, भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने वाली हमारी युवा पीढी शायद भारतीय वैभव पहचान पायें।







विदाई !

मित्र की विदाई में आयोजित एक समारोह में दुसरे मित्र ने अपने संदेश में कहा, "कुछ शत्रु जब मिलते हैं तो जान ले लेते हैं, और कुछ मित्र जब बिछुड़ते हैं तो प्राण ले लेते हैं।" उन्होंने बहुत भावुक हो मुझे यह बात सुनाई । विदाई कार्यक्रम इन्ही का था और वो भी आज से बीस बरस पहले। "और कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन उस विदाई समारोह एक लगभग एक महीने के बाद वो स्वयं अपनी देह त्याग इस संसार से विदा हो गये। मेरे मन में यह शब्द उन के अन्तिम शब्दों जैसे अंकित हो गए। प्रणय, इन बीस वर्षों में तुम दुसरे व्यक्ति हो जिस से मैंने यह बात की है।" अपने भाव छिपाने के लिए उन्होंने चाय का प्याला मुंह से लगा लिया। और कुछ देर के लिए हम दोनों चुप हो गए।






Wednesday, July 2, 2008

हमारे गुप्ता जी !


गुप्ता जी हमारे पड़ोस में पिछले वाले ब्लाक में रहते हैं। मेरा अपनी उन से कोई नमस्ते, राम राम नहीं है, परन्तु यदा कदा सुबह अपनी गैलरी में चाय पीते समय मैं उन्हें देख लेता हूँ। कोई पचास के पेटे में गुप्ता जी अनोखे जीव है। मेरी रूचि उन में तब जगी जब एक बार मैंने ध्यान दिया कि हर दिन लगभग साढ़े नौ बजे कोई स्कूटर स्टार्ट करता था और तब तक हार्न पर से हाथ नहीं उठता था जब तक सड़क के अन्तिम सिरे से आंखों से औझल न हो जाए। कुछ दिन तो मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया परन्तु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर एक दिन मैं सत्य की खोज के विशेष उद्देश्य से सवा नौ बजे बाहर आ खड़ा हुआ और देखा यह गुप्ता जी थे जो बड़े मनोयोग से अपना स्कूटर साफ़ कर और फिर सर पर शिरश्त्रान धारण कर उसे स्टार्ट करते तथा साथ ही हार्न चालु हो जाता था तब भी कोई दस पन्द्रह सेकंड्स तक वो खड़े उसे निहारते रहते और तत्पश्चात ही स्कूटर स्टैंड से उतार आगे चलते।


पहले मुझे लगा शायद हार्न का बटन ख़राब होगा, लेकिन एक दिन जब वो स्कूटर स्टार्ट कर चलने की तैयारी में थे (और हार्न बज रहा था) तभी उन की पत्नी ने घर से निकल उन से कुछ बात की और मजे की बात है कि उतने समय हार्न नहीं बजा और बात समाप्त होते ही उस कर्कश हार्न ने अपना राग छेड़ दिया। अगर गुप्ता जी संगीत प्रेमी थे (जो वो दूर दूर से नहीं लगते थे) तो भी यह बेसुरा हार्न कहीं भी हिमेश रेशमिया के सुर से मेल नहीं खाता था। मामला संगीन हो गया था और मैं इस मामले की तह तक पहुचने को बेकरार। घर में अन्य सदस्यों से पूछा तो सभी ने अनिभिज्ञता जताई और साथ ही वे लोग भी मेरी तरह उत्सुक हो गए। उस के बाद तो यह हमारा शुगल ही हो गया। हर सुबह जब स्कूटर स्टार्ट होता तो हम हार्न बजने का इन्तजार करते और बजते ही कहते की लो साढ़े नौ बज गए।



रहस्य कई दिनों तक बना रहा परन्तु इस दोरान मैं गुप्ता जी की बहुत सी आदतों का ज्ञाता बन गया। हर रोज सुबह गुप्ता जी नौ बजे के आस पास सूर्यदेव को जल देते थे परन्तु यह काम वो अपने घर के बाहर नहीं बल्कि सामने वाले घर के बाहर खड़े हो कर देते थे (वैसे वो अपना स्कूटर भी अपने घर के आगे से धकेल कर सामने वाले घर के दरवाजे पर स्टैंड लगा स्टार्ट करते हैं) सूर्य को जल वो अधिकाँश लोगो की तरह ग़लत ढंग से अपनी आँखें बंद कर देते थे। (मुझे बचपन में सिखाया गया था कि प्रभात काल के सूर्य को दिए जा रहे गिरते जल में से सूरज को देखना चाहिए , इस से आंखों को लाभ मिलता है ) सफाई कर्मचारी, सब्जी बेचने वाले, रद्दी खरीदने वाले, गाड़ी धोने वाला, माली, धोबी, किसी दूसरे घर का नौकर, यह सभी लोग गुप्ता जी की हिट लिस्ट में रहते थे। इन किसी से भी अपना कोई छोटा मोटा काम बेगार में करवा लेना गुप्ता जी के बाएं हाथ का काम था। मजे की बात यह है कि मेरे जैसे लोग अपने वैतनिक कर्मचारी से पूरा काम नहीं करवा पाते। गुप्ता जी की अन्य विशेषता यह भी थी कि वो इन सभी लोगों (जो भी जब भी फंस गया) के लिए कोई न कोई काम निकाल ही लेते थे। मैंने ध्यान दिया कि यह सभी शिकार भी गुप्ता जी के घर से निकलने के समय इधर उधर खिसक लेते थे या फिर उन की पुकार को अनसुना करने का प्रयास कर जान बचाते थे। अच्छा, गुप्ता जी भी बहुत दरिया दिल इंसान हैं, वो इन लोगों के उन को अनसुना करने का कभी बुरा नहीं मानते थे और मौका मिलने पर रास्ते में स्कूटर रोक (और हार्न बंद कर) उस गाड़ी धोने वाले को या सफाई वाले को बड़े प्यार से उलाहना देते, "देख ले दोस्त, तू फिर आया नहीं !" और वो भी उतने ही सम्मान से उत्तर देता, "कल जरूर आऊंगा बाबु जी !" पर न तो वो आता न गुप्ता जी बुरा मानते और न ही उसे हर दिन टोकना छोड़ते। बहुत बार मैंने गुप्ता जी को सुबह हाथ में हेलमेट लिए बिना स्कूटर के जाते देखा, माफ़ कीजियेगा, आते भी देखा। यह सिलसिला भी कई दिन चला, सोचा कोई मित्र इन को अपने साथ स्कूटर पर ले कर जाता होगा (हमारे शहर में दोपहिये पर दोनों सवारियों के लिए हेलमेट अनिवार्य है) परन्तु यह अर्ध सत्य ही निकला, चूँकि मैं व्योमकेश बक्षी के भांति गुप्ता जी पर नजर रखे था तो पता चला कि लिफ्ट तो वे लेते थे परन्तु उस सुविधा के लिए दूसरे व्यक्ति का उन का परिचित होना कोई जरुरी नहीं था । वो अपने इस अभियान के तहत समाज में भाईचारा बढ़ा रहे थे। मेरी उन के प्रति श्रद्धा तब और बढ़ गई जब एक बार शाम को घर वापसी के लिए उन्हें घर से मात्र कुछ कदमो की दूरी पर लिफ्ट मांगते देखा। यहाँ भी लिफ्ट न देने वाले के लिए उन के चेहरे पर कोई मलाल नहीं आता था। ऐसे मौकों पर गुप्ता जी को देख मुझे 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' के लाला घासी राम की याद आ जाती थी जो घसीट्पुर गाँव का बनिया था तथा बहुत मनोयोग से अपने ग्राहकों को कम तोल कर लूटता था। इस धांधली को वो अपना धर्म मान निष्ठापूर्वक निभाते थे और कभी कभार पकड़े जाने पर ग्राहक से मार खा भी बूरा न मानते थे और अगली बार फिर कम तोलते। खैर, गुप्ता जी के हार्न वाला रहस्य लगता था नेताजी सुभाष चंदर बोस की मृत्यु के रहस्य की भांति रहस्य ही रह जाएगा।



खैर, एक दिन शुभ महूर्त (हर घटना का महूर्त तह है) पर मुझे गुप्ता जी के सामने वाले घर में जाने का मौका मिला (वो ही घर जिस के आगे गुप्ता जी के सारे महत्वपूर्ण कार्य संपन्न होते थे)। सुबह के कोई साढ़े नौ बजे होंगे और हमारे बात करते करते युद्ध के बिगुल जैसे गुप्ता जी के चेतक की हुंकार सुनाई देने लगी । मेरे चेहरे पर तत्काल हुए परिवर्तन को उस घर के स्वामी ने देख लिए और कारण पुछा, जिस के उत्तर में मैंने यह हार्न बजने की वजह उन से पूछी। मेरे इस प्रश्न पर दोनों पति पत्नी हंसने लगे।



उन दोनों ने जो बताया वो इस प्रकार था: गुप्ता जी के घर के ऊपर वाली मंजिल में एक सेवानिवृत दत्त साहिब रहते थे। एक बार सच ही गुप्ता जी के स्कूटर का हार्न का बटन ख़राब हो गया था जिस से हार्न लगातार बजता रहता था और गुप्ता जी उसे ठीक नहीं करवाते थे। एक दिन दत्त साहिब ने सहज भावः से गुप्ता जी को उसे ठीक करवाने की सलाह दे दी। गुप्ता जी दत्त साहिब की गाड़ी अपने घर के आगे खड़े होने से पहले ही खफा रहते थे तो यह उन को अपनी भड़ास निकलने का अच्छा मौका मिल गया। फिर क्या था, बटन ठीक हो जाने के बाद भी गुप्ता जी स्कूटर स्टार्ट कर हार्न बजाना शुरू कर देते फिर कुछ समय तक वहां ठहर दत्त साहिब को तपाने के लिए हार्न बजाते रहते और तब तक बजाते रहते जब तक सड़क के अन्तिम छोर तक न पहुँच जाते। दत्त साहिब इस से तपते हो न हो लेकिन गुप्ता जी की आत्मा इस से बहुत तृप्त होती थी और वो दोगुने उत्साह से अपना अगला शिकार ढूंढने निकल पड़ते।



चलिए, मुझे अपनी शंका का समाधान मिल गया है और लगता है गुप्ता जी को कोई नया शिकार मिल गया है क्योंकि अचानक ही उन का हार्न बजना बंद हो गया है।




Sunday, June 29, 2008

सत्यजीत रे !

सत्यजीत रे की कोई फ़िल्म तो अभी तक नहीं देख पाया हूँ, परन्तु इस बार उन की लिखी कहानियाँ पढने को मिलीं। मूलत: बांग्ला में लिखी यह लघु कहानियाँ प्रभात गुप्त द्वारा हिन्दी में अनुवादित हैं। कुल सात कहानीयों की कोई दो सौ पृष्ठों की पुस्तक मैंने दो बैठकों में पूरी कर ली थी।


जीवन के अन्तिम पढाव पर आस्कर की घोषणा के बाद ही भारतीय मीडिया की नजरों में आए रे , फ़िल्म निर्माता होने के साथ साथ एक उत्कृष्ट चित्रकार और लेखक भी थे शायद ही अधिक लोग जानते होंगे। खैर, इस कहानी संग्रह की बात करें तो सभी कहानियाँ रोचक तथा एक विशेष आकर्षण से भरीं थी। आलौकिक शक्ति, मनोविज्ञान, सत्यान्वेषी बुद्धि, रहस्य तथा रोमांच से गुथी विभिन्न कथाएँ पाठक को पुस्तक रखने नहीं देतीं। बातिक बाबु, हंसने वाला कुत्ता और जासूस फेलुदा की सोने का किला तो निश्चित रूप से सुंदर रचनाएँ हैं।


सत्यजित रे द्वारा निर्देशित / निर्मित कुछ फिल्में पहले से ही मेरी सूचि पर थी परन्तु इस कहानी संग्रह ने मेरी उस उत्कंठा को उबार ही नहीं दिया बल्कि उस सूचि में उन के द्वारा रचित और रचनायों को भी जोड़ दिया है।


Wednesday, June 18, 2008

पुण्य स्मरण:


कार्यक्रम एक छात्रावास का था जिस में अधिकाँश बच्चे उत्तर व् उत्तर पूर्व भारत के जनजातिय क्षेत्रों के अभावग्रस्त परिवारों के थे। कार्यक्रम बहुत सादा और सजीव रहा । लगभग सभी बच्चों ने (हिन्दीभाषी न होते हुए भी) बहुत सुंदर प्रस्तुतिकरण किया। बाद में छात्रावास के प्रबंधक द्वारा दिए गए वृत्त से पता लगा कि वहां रहने वाले बच्चों में सब से कम आयु का बालक पॉँच - छ वर्ष का था। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद बच्चों के साथ भोजन कर हम लोग अपनी कार से लौट रहे थे। अपने एक मित्र के साथ वे पिछली सीट पर बैठे बातचीत कर रहे थे और मैं मूक श्रोता बन गाड़ी चला रहा था।



अनायास ही उन के मित्र ने पूछा कि वे कुछ उदास लग रहें हैं क्या बात है ? चौंक कर मैंने भी रियर व्यू मिरर में उन का 'उदास' चेहरा देखने का प्रयास किया। सामने से आने वाली गाड़ियों के प्रकाश में सच ही वे कुछ भावुक से लग रहे थे। "मेरे ऊपर कुछ समय इस छात्रावास के संरक्षक की जिम्मेवारी रही है" उन्होंने शुन्य में निहारते कहना शुरू किया। "उस समय इस छात्रावास के बच्चों के वार्डन के रूप में एक परिपक्व दम्पति नियुक्त था । इस बीच मेरी व्यस्तता बढने के कारण काफ़ी समय मेरा यहाँ आना नहीं हुआ। आज इतने दिनों के बाद आने पर पता चला कि प्रबंध समिति ने उस दम्पति के स्थान पर एक तरुण युवक को नियुक्त कर दिया है।" वे निश्चित ही उदास स्वर में बोले थे।



मैं अभी भी उन की चिंता का कारण न समझ हैरान हो रहा था और एक पल साँस ले वे फिर बोले, " महिलाएं संवेदनशील होतीं हैं और बच्चे भी पुरूष की अपेक्षा किसी महिला से अधिक स्नेह रखतें हैं । वो दोनों पति पत्नी बड़े मनोयोग से बच्चों की संभाल करते थे। बच्चे भी उस महिला को अपनी माँ समझ दुःख सुख कह लेते होंगे। परन्तु यह अविवाहित नया वार्डन कैसे बच्चों की देखभाल कर पायेगा ? रात्रि में सोने के समय बत्तियां बुझा अपने कमरे में सो जाता होगा । उस को कल्पना भी नहीं होगी कि किसी बच्चे को उस की जरुरत होगी। पॉँच साल का वो नन्हा बालक जब रात को अपनी मां को याद कर रोता होगा तो कौन उसे सीने से लगा चुप कराता होगा ? " इस के आगे वे कुछ नहीं बोले न ही हम में से कोई कुछ कह पाया। हवा एकदम नमी से भर गयी लगती थी।




यह बात कोई चार साल पुरानी है। मैं जो अपने पापा को बहुत सख्त समझता था, उस दिन उन की उदासी देख दंग रह गया। बाहर से इतने कठोर दिखने वाले अंदर माँ का ह्रदय रखतें थे, सोच कर मन भर आता है। काश आप कुछ और समय हमारे साथ रहते। १८ जून को आप की पुण्यतिथि पर भावभीनी पुष्पान्जिलि ।






Sunday, April 27, 2008

बात पते की !

"अपने जीवन में ही मनुष्य चार योनियों को प्राप्त करता है।" नरेश के पिता जी ने बताया।

लगभग पचहतर वर्ष की आयु वाले नरेश के पिता काफी सजग व सक्रिय लग रहे थे। नरेश के गांव में उस के घर जलपान हेतु हम लोग जब अतिथि कक्ष में बैठे थे तो वो हमारे बीच आ बैठे । अपने दांत विहीन पोपले मुंह से जब उन्होंने बातें सुनानी शुरू की तो हम लोग चाय पीना भूल गए । काशी से पहली बार हिमाचल के किसी गांव में आए हमारे एक मित्र ने जब दुर्गम हिमाचली क्षेत्रों में भी साक्षरता पर विस्मय प्रकट किया तो नरेश के पिता ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के विषय में अपने दादा की बात बताई जिन्होंने "श्री गणेशाय नमः" से उन की शिक्षा शुरू की। उन के अनुसार उन दिनों 'ग' से 'गणेश' होता था और आजकल 'ग' से 'गधा' । अंग्रेजी वर्णमाला पर व्यंग करते हुए उन ने कहा देखो ये सारी जानवरों से भरी पड़ी है , शुरुआत ही गधे के नाम ( a for ass) से होती है।


"और आप का स्वास्थ्य कैसा रहता है", मैंने पूछा । " अपने स्वास्थ्य का क्या है, मनुष्य अपने जीवन में कुल चार योनिओं से गुजरता है"। उन्होंने मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर न देते हुए नयी बात शुरू की। "अपने जीवन के मात्र प्रथम पच्चीस वर्ष ही वो मनुष्य का जीवन जीता है। नरेश तो खैर अठाईस साल का हो गया । परन्तु विवाह से पहले मानव मानव की योनि में रहता है। विवाह की गृहस्थी में जुतने पर उस की योनि बैल की हो जाती है। घर परिवार का बोझ, काम काज की चिंता, बच्चों व पत्नी की आवश्य्कतायों को पूरा करने के लिए उसे हल में जुते बैल जैसे ही श्रम करना पड़ता है। उस के पश्चात् जब बच्चे बड़े हो जातें हैं और अपनी मनमानी करते पिता की नहीं सुनते, पत्नी भी इतने वर्षों में पति की परवाह करना कम कर देती है तो व्यक्ति सारा दिन बस भोंकता ही रहता है। पर उस की सुनता कोई नहीं तब यह तीसरी योनि होती है।" वो केवल कथा ही नहीं सुना रहे थे बल्कि साथ साथ अभिनय भी कर रहे थे। हम लोग हंस हंस कर लोट पोट हो रहे थे।


"और चौथी योनि?" हम में से किसी से उत्सुकता से पूछा , कोई भी इतनी रोचक बात का क्रम टूटने नहीं देना चाहता था । "चौथी योनि में कानों से सुनायी नहीं देता, आंखों से दिखायी नहीं देता, रात को नींद नहीं आती । व्यक्ति गर्दन झुकाए बैठा रहता है, कोई उस के आस पास आना नहीं चाहता। यह उल्लू की योनि होती है।" उन्होंने भी उसी लय में अपनी बात का क्रम जारी रखा। वो उसी प्रकार का अभिनय करते हुए हंस रहे थे। "तो मैं आजकल उल्लू की योनि में हूँ। पहले जब लोग यह बात सुनाया करते थे तो मैं भी उन पर हंसा करता था पर अब अनुभव करता हूँ यह सत्य सिद्ध बात है। कहतें हैं न, बुजुर्गों का कहा और आंवले का खाया बाद में ही पता चलता है" नरेश के पिता जी अपनी बात पूरी की। इसी के साथ ही किसी ने भोजन वितरण आरंभ होने की सूचना दी और हम लोग उठ खड़े हुए ।



Saturday, April 26, 2008

वाह विवाह !

यूं हिमाचल के किसी सुदूर गाँव के कोई विवाह समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए नई बात नहीं है परन्तु इस बार नरेश के विवाह पर मन में कई विचार उठे।


वैसे तो सोचने में ये ओछा ही लगता है, पर मैं उस विवाह पर आए संभावित खर्च के विषय में सोच रहा था। बात केवल नरेश के विवाह की नहीं है। प्राय: सभी हिमाचली ग्रामीण विवाह अत्यंत सादे व तड़क भड़क से परे होतें हैं। बहुत अधिक लेनदेन नहीं होता, कपड़े लत्ते या आभूषण अपने सामर्थ्य अनुसार और संगीत के नाम पर कान फोडू , कर्कश और भद्दे फिल्मी गानों की बजाय स्थानीय कर्णप्रिये लोक संगीत ही होता है। दावत पर खिलाए जाने वाली धाम में भूमि पर आसीन आतिथिओं को सदैव पत्तल में दाल भात ही रहता है चाहे किसी भी स्तर का व्यक्ति क्यों न हो। तो फिर चाहे कितने भी बाराती हों, मेजबान की जेब और चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। अन्यथा भी स्नेहपूर्वक खिलाए जाने वाला साधारण दाल भात, धक्के मुक्की से प्राप्त होने वाले छप्पनभोगों से कहीं अधिक स्वादिष्ट व तृप्तिदायक होता है।


खैर बात हो रही थी शादी पर आने वाले खर्चे की। मेरे अनुमान से इस विवाह पर अधिक से अधिक तीस या चालीस हजार का व्यय हुआ होगा। ऐसा नहीं है कि यह परिवार संपन्न या शिक्षित नहीं था, वर स्वयं अधिवक्ता, उस का अग्रज निर्माण विभाग में अभियंता तथा पिता सेवानिवृत सरकारी अधिकारी थे। परन्तु सादगी ग्रामीण क्षेत्रों में दैनिक जीवन पद्दति है।


लेकिन क्या हम कल्पना कर सकते हैं इस प्रकार की सादगी शेष उत्तर भारत में? विशेषकर पंजाब में अनावश्यक दिखावा बहुत अधिक है। नगरीय या ग्रामीण, प्रत्येक स्थान पर मिथ्या एश्वर्य का प्रदर्शन बेहूदगी की सीमा लाँघ जाता है।ऋण में सर तक डूब कर ही क्यों न अपनी शान बघारी जाए पर खर्चा लाखों करोडों से कम नहीं होना तय है । नवीनता के नाम पर नए नए प्रयोग हो रहें हैं। अतिथिओं के मनोरंजन के लिए अशलीलता के दरबार लगे मिलते हैं। हजारों तरह के व्यंजन व पकवान होतें हैं पर उन का सेवन वही कर सकता है जिस ने अपनी गरिमा बेच खायी हो और चील से झपट्टा मारने की कला सीखी हो। शालीन अतिथि को तो भूखे पेट ही वापिस लौटना पड़ता है। आजकल तो एक नया प्रचलन चल पड़ा है कि लड़की दुल्हे को ब्याहने अपने ससुराल बारात लेकर आती है। अंतत: इस नवीन प्रथा के पीछे भी आर्थिक पहलू ही काम कर रहा है। छोटे छोटे गांवों में भी दहेज़ को लेकर झगडे हो रहें हैं। जहाँ तक मुझे ध्यान आता है, मैंने कभी हिमाचली गांव में दहेज़ संबंधित विवाद नहीं देखा।


यहाँ मुझे 'God Must Be Crazy' नामक फ़िल्म में वह आदिवासी परिवार की याद आती है जो 'जंगली' हो कर भी पूर्णतया: प्रसन्न और संतोषी था, परन्तु एक दिन किसी पायलट द्वारा फेंकी गयी कोला की खाली बोतल के कारण झगडे का केन्द्र बन जाता है, और फिर उस परिवार का मुखिया उस 'मुसीबत की जड़' बोतल को दुनिया के अन्तिम किनारे से नीचे फेंकने का संकल्प लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा पर पैदल निकल पड़ता है।


तो शायद हम लोग भी आधुनिकता व तथाकथित शिक्षित होने के ढोंग में अपना जीवन जंजाल बना रहें हैं। हर कोई मन में कुछ, चेहरे पर कुछ और वाणी में कुछ और लिए बनावटी जिन्दगी जी रहा है तथा इस आपाधापी में अपनी सही पहचान भूल गया है। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि आजकल घर से निकलने के समय हमें कितनी सारी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है, रुमाल, चश्मा, चाबियाँ, घड़ी, मोबाइल, लैपटॉप, पर्स इत्यादि। सूचि और भी लम्बी हो सकती है लेकिन इस से कम तो कदापि नहीं। इन में से एक भी छुटने पर हम सारा दिन अपाहिज सा अनुभव करतें हैं। तो यह वस्तुएं हमारी सुविधा के लिए हैं या हम इन के गुलाम? लगता तो गुलामों वाला मामला ही है। यह हमारे लिए नहीं हम इन के लिए हो गए हैं। और कुछ लोग मात्र एक धोती लोटे में भी 'झकास' जीवन जीतें हैं।


साधू हो जाना सभी के लिए सम्भव नहीं है और न ही आवश्यकता, परन्तु इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ झूठे दिखावे को त्याग यथासंभव सादगी पूर्ण जीवन जीने का प्रयास तो हम कर ही सकतें हैं। एक दो दिन कर देखें शायद सच ही हम परम संतोष अनुभव करें, देखें कहीं 'गाय न बच्छी नींद आए अच्छी ' कहावत चरित्रार्थ हो जाए।



Monday, April 14, 2008

मानव आयु !

आज एक बहुत ही असमंजसपूर्ण स्थिति का गवाह बना । लगभग १०० वर्षों के एक वयोवृद्ध का भविष्य तय हो रहा था। सुनने में बहुत आश्चर्य लगता है, १०० वर्षों की आयु वाले परिपक्व व्यक्ति का भविष्य ? परन्तु यह सही है।

दरअसल उस वृद्ध के लगभग ६० वर्ष की आयु वाले पुत्र का देहांत हो गया । वह वृद्ध अपने उसी पुत्र के साथ रहता था। उस वृद्ध के अन्य जीवित दो पुत्रों में से एक को अपने व्यापार से फुर्सत नहीं तथा दूसरे पुत्र ने सन्यास ग्रहण कर अपना घर बार छोड़ रखा है। वृद्ध की पत्नी की भी मृत्यु हो चुकी है तथा उस के पौत्र अपने अपने कार्यों से अन्य नगरों में रहतें हैं। तो अब यह बुजुर्ग कहाँ रहेंगे , यह उस समय का यक्ष प्रश्न था ।

समस्या केवल इतनी ही नहीं थी, समस्या मृतक की विधवा की भी थी। परन्तु मेरा मन तो उस वृद्ध के विषय में ही सोच रहा था। इतनी आयु में पहले तो पत्नी के छोड़ जाने का अकेलापन, और फिर अपनी आंखों के समक्ष अपने पुत्र की मृत्यु । इतना ही नहीं तो अपनी ही संभाल कर पाने में शारीरिक असमर्थता , याने दैनिक नित्यकर्मों में किसी अन्य व्यक्ति की सहायता की दरकार। तो क्या इतनी लम्बी आयु वरदान हैं या श्राप ? आख़िर मानव आयु कितनी होनी चाहिए ?

विदेशों की विभिन्न व्यवस्थाओं की बात न करके अगर केवल भारतीय समाज का सोचें, जो अभी तक न पूर्ण रूप से अपनी प्राचीन परम्पराएँ त्याग पाया है और न ही पूर्णतया विदेशी चलन अपना सका है, तो यही मन में आता है कि आयु उतनी ही हो जितनी देर अपने हाथ पांव चलते हों या संतान के संस्कार ऐसे हों कि जीवन पर्यंत वह अपने बुजुर्गों की सेवा करें ।


वहाँ से लोटने के बाद भी आंखों के सामने उन्ही वृद्ध का चित्र आ रहा है जैसे पूछ रहें हों "मैं अवांछित क्यों हूँ, अगर मेरी आयु लम्बी है तो इस मेरा क्या दोष है ?"



Saturday, April 12, 2008

चिंता या चिंतन !


ज्ञानी जन कहते हैं कि सब प्रभु पर छोड़ दो, एक क्षण की भी चिंता न करो । तथा दूसरी और उन का कहना है कि भगवान उन की सहायता करतें हैं जो अपनी सहायता स्वयं करतें हों ।

तो अपनी सहायता करने के लिए समस्या के समाधान हेतु विचार तो करना ही पड़ेगा और विचार करते समय समस्या का आगा पीछा, उस के संभावित उपाय या उन उपायों की अनुपस्थिति में आने वाले परिणाम व दुष्परिणाम सब ही तो सोचने पड़ेंगे । अब इस विचार श्रृंखला में कब मन चिंतन से चिंता में प्रवेश कर जाता है पता ही नहीं चलता। चिंता व चिंतन का अन्तर रख पाना तभी तो सम्भव है जब आप इन दोनों को पृथक रखें, परन्तु इन दोनों को पृथक रखना जैसे धूप और छाया को अलग करने जैसा टेढा काम है। चिंतन करते करते चिंता शुरू हो जाती है और शुरू हो जाती है एक नवीन समस्या जो उस चिंता के कारण होती है । तो माने यह कि चिंता से बचने के लिए इस अन्तर का बना रहना अति आवश्यक है।

अब इस अन्तर को बनाये रखना भी एक समस्या ही है, आप को हर समय ध्यान रखना होगा की आप यह अंतर बनाये रखें। तो इस का अर्थ यह रहा कि चिंता से बचने के लिए एक नयी चिंता पालनी पड़ेगी। तो अब इस नई चिंता की चिंता कौन करेगा, यह भी एक चिंता का विषय है ।



Sunday, April 6, 2008

शुभ कामनाएं

हिन्दु नव वर्ष २०६५ की हार्दिक शुभ कामनाएं !

Sunday, March 16, 2008

'सबहिं नचावत राम गोसाईं'

'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरे लिए हर्षिकेश मुखर्जी की किसी फ़िल्म से कम नहीं। अब तक बीसिओं बार मैंने यह उपन्यास पढ़ा है और अभी और बीसिओं बार पढ़ सकता हूँ। जब भी कोई अन्य पुस्तक पढ़ने को उपलब्ध न हो तो यही उपन्यास मेरे हाथों में रहता है ।

भगवती चरण वर्मा द्वारा रचित यह उपन्यास सर्वप्रथम १९७० में प्रकाशित हुआ था । इस का कालखंड १९२० - २१ से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद १९६० - ६५ तक का है। उपन्यास मूलत: तीन लोगों के आस पास घूमता है, उद्योगपति सेठ राधेश्याम, गृह मंत्री जबर सिंह, तथा पुलिस इंसपेक्टर रामलोचन । तीनो लोग अलग अलग गुणों का प्रतिनिधित्व करतें है। सेठ राधेश्याम एक छोटे से गांव के बनिये का पौत्र है जो घर से निकला था आई सी एस की परीक्षा देने के लिए परन्तु अपनी विलक्षण प्रतिभा, चतुराई और अवसरवादिता से देश का प्रमुख उद्योगपति बन गया। जबर सिंह एक डाकू का वंशज है जिसे उस के भाग्य ने प्रदेश का गृह मंत्री बना दिया । और तीसरा रामलोचन जो कि एक ब्राह्मण परिवार से है तथा मुकदमेबाजी के चलते पुलिस की नौकरी करने को मजबूर था। रामलोचन एक संवेदनशील, निर्मल मन और भावनाशील युवक जो लाग लपेट, छःल कपट से कोसों दूर था, अपने आप को बनावटी लोगों से घिरा पाता है।

उपन्यास देश के उस समय के राजनैतिक, सामाजिक परिवेश पर भरपूर व्यंगात्मक छिंटाकशी है। जहाँ राजनीति में भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और छुरा घोंप संस्कृति का बोलबाला चरम सीमा पर था वहीं जो उद्योगपति स्वंतत्रता प्राप्ति से पूर्व अंग्रेजों का हुक्का भरते थे, आजादी के आस पास गाँधी टोपी और खादी पहन कांग्रेस के कार्यकर्त्ता बन गए तथा कांग्रेस को चन्दा दे दे कर उन लोगों का अन्य लोगों को क्रय करने का व्यापार पहले से अधिक फलने फूलने लगा। आज़ादी के बाद राजनीति की सत्ता शक्ति और पूंजीवाद की धन शक्ति अब मिल जुल कर पूर्ण आज़ादी से आम जनता के रक्त का रसास्वादन करने लगी । सरकारी अफसर, सामंतवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, कम्युनिस्ट या दक्षिणपंथी सभी लेखक के व्यंग पर कसे दिखते हैं ।

उपन्यास का अन्तिम अध्याय 'उठापटक' पुस्तक का सर्वाधिक रोचक हिस्सा है जिस में कहानी के सारे पात्र इकट्ठे हो जातें है। अपनी हरेक योजना में बिना अवरोध लगातार सफल होने वाले और "समस्त भावना का स्वामी होता है रूपया" का निरंतर जाप करने वाले राधेश्याम जैसे लोगों को ग़लत सिद्ध करने वाला अगर कोई था तो वह था रामलोचन पाण्डेय ।

उपन्यास आरंभ करने के बाद व्यग्रता रहती है इसे जल्दी समाप्त करने की परन्तु कहानी के अन्तिम पृष्ठों पर मन करता है कि कहानी अभी और चलनी चाहिए। भगवती बाबु के प्रत्येक चरित्र के मुंह से निकली बात पाठक के हृदय पर अंकित हो जाती है और हर घटना सोचने को विवश करती है। यह कथा बेशक आधी शताब्दी पूर्व की हो लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक और पठनीय है । निसंदेह 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरी प्रिय पुस्तकों से एक हैं तथा ऐसी और कहानिओं की मुझे सदैव तलाश रहेगी ।


Saturday, March 8, 2008

वसुदेव

श्री कृष्ण की जन्मगाथा से हम सभी भली भांति परिचित हैं । महिर्षि नारद तथा अन्य भाविष्यवक्ताओं द्वारा की गई घोषणाओं से भयभीत हो मथुरा के अत्याचारी शासक कंस ने अपनी ही बहन व उस के पति राज्य के धर्माधिकारी वसुदेव की हत्या का प्रयास किया वो भी उन के विवाह के अवसर पर ही। परन्तु वसुदेव की सूझ बूझ से उन दोनों की असामयिक मृत्यु कुछ देर के लिए तो टल गयी लेकिन उन की आने वाली संतानों की प्रसव शैय्या पर ही मृत्यु अवशम्भावी थी। अनेक कथाएँ इन घटनाचक्रों पर लिखी गयीं हैं परन्तु अधिकांश सभी कथाकारों ने देवकी व वसुदेव के विषय में थोड़ा बहुत लिख कर मुलत: श्री कृष्ण पर ही ध्यान केंद्रित किया है।


नरेन्द्र कोहली द्वारा लिखित उपन्यास 'वसुदेव', उन्हीं देवकी वसुदेव की अटल जिजीविषा की कथा है । अपने बच्चों के जरा से कष्ट पर हम सभी किस प्रकार व्यथित हो अपनी सारी क्षमता से वह कष्ट दूर करने का प्रयास करतें हैं और जरा सोचिये देवकी वसुदेव की मनोस्थिति जिन की संतानें उन्हीं की आँखों के सामने कंस के क्रूर हाथों मारीं गयीं वो भी एक दो नहीं अपितु छ:। लगभग बीस वर्षों का यह अतुलीनीय और असहनीय संग्राम, जो अपनी संतानों का बलिदान मांगे किसी साधारण मानस के लिए सम्भव नहीं है। नरेन्द्र कोहली ने यह गाथा केवल आध्यात्मिक पक्ष की न रख आधुनिक सन्दर्भ से जोड़ कर सरल व्यवहार में लिखी है। कहानी द्वापर युग की होने के पश्चात् भी आज की परिस्थितियों से जोड़ी जा सकती हैं। उपन्यास में श्री कृष्ण के जन्म संबंधित घटनाएँ तथा उन के आलोकिक कृत्यों को आज के उन वैज्ञानिक बुद्धि वाले पाठकों को ध्यान में रख कर उकेरा गया हैं जो 'Mythology' और 'Science Fiction' के प्रति अलग अलग दृष्टिकोण रखतें हैं ।

उपन्यास के मध्यांतर पश्चात लगता ही नहीं कि आप कोई ऐतहासिक कथा पढ़ रहे हैं अपितु लगता है आज के ही राजनीतिक व सामाजिक परिवेश का चित्र देख रहे हैं। कंस को प्रसन्न करने के लिए उस के मंत्रियों सहित समाज के बुद्धिजिवियों द्वारा अपनी आत्मा बेच देने का अध्याय आज का ही लगता है। इतना ही नहीं कंस के एक शिक्षा मंत्री के कारनामें, नाम व ब्योरा अनायास ही पाठक के चेहरे पर मुस्कान ला देता है। लेखक ने पूरी क्षमता से समाज को जागृत करने का प्रयास किया है जो अपने वातानुकूलित कक्षों में बैठ देश की अच्छी बुरी दशा पर अपनी राय देतें हैं और स्वयं वोट देना भी शर्म का काम समझतें हैं । देवकी वसुदेव की इस गाथा का एक मात्र और मुख्य संदेश यही हैं कि राष्ट्र की प्रत्येक समस्या का स्रोत, संताप और समाधान राष्ट्र के समाज में ही होता है और समाज के वसुदेव जैसे मनीषियों के बलिदानों से ही देश सुरक्षित व सभ्य रह पाता है। श्री कृष्ण जैसे अवतारों का अवतरण भी इन्हीं मनीषियों की तपस्या का परिणाम होता है न कि कोई स्वाभाविक प्रक्रिया ।

देश व समाज की हर समस्या पर शासक व राजनीति को दोष न दे कर स्वयं अपना धर्म निभाना और फिर उस कर्तव्यपूर्ति पश्चात किसी पुरस्कार की अपेक्षा न करने का संदेश ही संभवत: लेखक का निहित उद्देश्य है ।


Monday, March 3, 2008

मनोगत:

मन है कि कभी विराम ही नहीं लेता । अब ये मन है या बुद्धि ये भी कहना कठिन है परन्तु जो भी है लगातार कुछ न कुछ बुनती ही रहती है । ठीक उस सागर की तरह जिस में हर समय लहरें आतीं रहती हैं । कई बार मन चाहता है की ये कुछ देर तो शांत बैठे, परन्तु नहीं काश कोई बटन होता जिस से मन को सोचने से रोका जा सकता ठीक टीवी के उस विज्ञापन की तरह । परन्तु यह भी तो उसी उन्मुक्त मन की सोच है जिसे मैं लगाम डालना चाहता हूँ।

खैर, आज प्रणय निवेदन के लगभग एक वर्ष बाद इस मन की इच्छानुसार पाथेय कण का निर्माण हो गया है । अब पता नहीं कितना मार्ग तय कर पायगा । देखेगें !