Sunday, July 6, 2008

अमर चित्र कथा


अफजल खान के कटे हुए सर को अपने भाले पर टांग गर्व से विजय प्रदर्शन करते अपने मराठा सैनिकों को देख वीर शिवाजी ने तुंरत उन्हें टोकते हुए कहा, "अपने मृत शत्रु का अपमान करना हमें शोभा नहीं देता। अफजल खान का ससम्मान अन्तिम संस्कार होना चाहिए।" अमर चित्र कथा के शिवाजी अंक के यह शब्द मुझे सचित्र ध्यान हैं। केवल यही नहीं अपितु और भी बहुत से अंक मेरे मन मष्तिष्क पर उन के रंगीन चित्रों सहित गुदे हुये हैं।




राज जी की पोस्ट, चिंतन को पढ़ अमर चित्र कथा मेरी आंखों के आगे घूम गयी। बाल्यकाल में (माशाल्लाह मैं तो अभी भी बालक सा ही अनुभव करता हूँ) मैंने अनगिनत अंक पढ़े होंगे और कई अंक अनगिनत बार पढ़े होंगे। कई कई घंटे मैं उन पुस्तकों से चिपका रहता था। भारतीय इतिहास माला का शायद ही कोई नायक होगा जिस का अंक मैंने नहीं पढ़ा होगा। केवल पढ़ा ही नहीं मेरा बाल मन उन चित्रों को देख उसी प्रवाह में बह जाता था और मैं भी गोरा-बादल जैसे चित्तोड़गढ़ के किले से रानी पद्मिनी पर बुरी नजर रखने वाले अल्लाउद्दीन खिलजी के शिविर पर टूट पड़ने को आतुर हो जाता। मैं भी अपने आप को महिरावण की कैद से रामजी को छुडाने के लिए मक्खी बने हनुमान के साथ उड़ता पाता। नरेन् का सभी से प्रभु देखे होने का प्रश्न करना तथा स्वामी परमहंस का बिस्तरे नीचे धन के कारण चिंहुक उठाने का चित्र आज भी मेरी आंखों के सामने स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसे कई प्रसंग मेरी स्मृति में स्थाई रूप से अंकित हैं। इन्ही के साथ अमर चित्र कथा की जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, हितोपदेश इत्यादि सम्मिलित हैं। मुझे ध्यान हैं कि मेरे पिता जी ने उस समय मेरे लिए किराये पर पुस्तकें पढने के लिए मासिक शुल्क की व्वयस्था कर रखी थी।





और केवल अमर चित्र कथा ही नहीं, बल्कि नंदन, चंदामामा, बाल-भारती की छोटी व् सरल जीवनियाँ मेरी पठनीय पुस्तकों में थी। ऐसा नहीं है की मैंने चलता फिरता प्रेत बेताल या जादूगर मेंड्रेक या फ्लैश गोर्डोन या जासूस रिप किर्बी या बहादुर या मधु मुस्कान और टिंकल का कोई भी अंक छोड़ दिया हो परन्तु अमर चित्र कथा का स्थान मेरी पढ़ी पुस्तकों में सब से ऊँचा है। भारतीय बाल वर्ग को अमर चित्र कथा एक अनमोल उपहार है और अगर इन पुस्तकों को भारतीय शिक्षा पद्दति में जोड़ दे तो मैकाले विष से ग्रसित, भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने वाली हमारी युवा पीढी शायद भारतीय वैभव पहचान पायें।







विदाई !

मित्र की विदाई में आयोजित एक समारोह में दुसरे मित्र ने अपने संदेश में कहा, "कुछ शत्रु जब मिलते हैं तो जान ले लेते हैं, और कुछ मित्र जब बिछुड़ते हैं तो प्राण ले लेते हैं।" उन्होंने बहुत भावुक हो मुझे यह बात सुनाई । विदाई कार्यक्रम इन्ही का था और वो भी आज से बीस बरस पहले। "और कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन उस विदाई समारोह एक लगभग एक महीने के बाद वो स्वयं अपनी देह त्याग इस संसार से विदा हो गये। मेरे मन में यह शब्द उन के अन्तिम शब्दों जैसे अंकित हो गए। प्रणय, इन बीस वर्षों में तुम दुसरे व्यक्ति हो जिस से मैंने यह बात की है।" अपने भाव छिपाने के लिए उन्होंने चाय का प्याला मुंह से लगा लिया। और कुछ देर के लिए हम दोनों चुप हो गए।






Wednesday, July 2, 2008

हमारे गुप्ता जी !


गुप्ता जी हमारे पड़ोस में पिछले वाले ब्लाक में रहते हैं। मेरा अपनी उन से कोई नमस्ते, राम राम नहीं है, परन्तु यदा कदा सुबह अपनी गैलरी में चाय पीते समय मैं उन्हें देख लेता हूँ। कोई पचास के पेटे में गुप्ता जी अनोखे जीव है। मेरी रूचि उन में तब जगी जब एक बार मैंने ध्यान दिया कि हर दिन लगभग साढ़े नौ बजे कोई स्कूटर स्टार्ट करता था और तब तक हार्न पर से हाथ नहीं उठता था जब तक सड़क के अन्तिम सिरे से आंखों से औझल न हो जाए। कुछ दिन तो मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया परन्तु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर एक दिन मैं सत्य की खोज के विशेष उद्देश्य से सवा नौ बजे बाहर आ खड़ा हुआ और देखा यह गुप्ता जी थे जो बड़े मनोयोग से अपना स्कूटर साफ़ कर और फिर सर पर शिरश्त्रान धारण कर उसे स्टार्ट करते तथा साथ ही हार्न चालु हो जाता था तब भी कोई दस पन्द्रह सेकंड्स तक वो खड़े उसे निहारते रहते और तत्पश्चात ही स्कूटर स्टैंड से उतार आगे चलते।


पहले मुझे लगा शायद हार्न का बटन ख़राब होगा, लेकिन एक दिन जब वो स्कूटर स्टार्ट कर चलने की तैयारी में थे (और हार्न बज रहा था) तभी उन की पत्नी ने घर से निकल उन से कुछ बात की और मजे की बात है कि उतने समय हार्न नहीं बजा और बात समाप्त होते ही उस कर्कश हार्न ने अपना राग छेड़ दिया। अगर गुप्ता जी संगीत प्रेमी थे (जो वो दूर दूर से नहीं लगते थे) तो भी यह बेसुरा हार्न कहीं भी हिमेश रेशमिया के सुर से मेल नहीं खाता था। मामला संगीन हो गया था और मैं इस मामले की तह तक पहुचने को बेकरार। घर में अन्य सदस्यों से पूछा तो सभी ने अनिभिज्ञता जताई और साथ ही वे लोग भी मेरी तरह उत्सुक हो गए। उस के बाद तो यह हमारा शुगल ही हो गया। हर सुबह जब स्कूटर स्टार्ट होता तो हम हार्न बजने का इन्तजार करते और बजते ही कहते की लो साढ़े नौ बज गए।



रहस्य कई दिनों तक बना रहा परन्तु इस दोरान मैं गुप्ता जी की बहुत सी आदतों का ज्ञाता बन गया। हर रोज सुबह गुप्ता जी नौ बजे के आस पास सूर्यदेव को जल देते थे परन्तु यह काम वो अपने घर के बाहर नहीं बल्कि सामने वाले घर के बाहर खड़े हो कर देते थे (वैसे वो अपना स्कूटर भी अपने घर के आगे से धकेल कर सामने वाले घर के दरवाजे पर स्टैंड लगा स्टार्ट करते हैं) सूर्य को जल वो अधिकाँश लोगो की तरह ग़लत ढंग से अपनी आँखें बंद कर देते थे। (मुझे बचपन में सिखाया गया था कि प्रभात काल के सूर्य को दिए जा रहे गिरते जल में से सूरज को देखना चाहिए , इस से आंखों को लाभ मिलता है ) सफाई कर्मचारी, सब्जी बेचने वाले, रद्दी खरीदने वाले, गाड़ी धोने वाला, माली, धोबी, किसी दूसरे घर का नौकर, यह सभी लोग गुप्ता जी की हिट लिस्ट में रहते थे। इन किसी से भी अपना कोई छोटा मोटा काम बेगार में करवा लेना गुप्ता जी के बाएं हाथ का काम था। मजे की बात यह है कि मेरे जैसे लोग अपने वैतनिक कर्मचारी से पूरा काम नहीं करवा पाते। गुप्ता जी की अन्य विशेषता यह भी थी कि वो इन सभी लोगों (जो भी जब भी फंस गया) के लिए कोई न कोई काम निकाल ही लेते थे। मैंने ध्यान दिया कि यह सभी शिकार भी गुप्ता जी के घर से निकलने के समय इधर उधर खिसक लेते थे या फिर उन की पुकार को अनसुना करने का प्रयास कर जान बचाते थे। अच्छा, गुप्ता जी भी बहुत दरिया दिल इंसान हैं, वो इन लोगों के उन को अनसुना करने का कभी बुरा नहीं मानते थे और मौका मिलने पर रास्ते में स्कूटर रोक (और हार्न बंद कर) उस गाड़ी धोने वाले को या सफाई वाले को बड़े प्यार से उलाहना देते, "देख ले दोस्त, तू फिर आया नहीं !" और वो भी उतने ही सम्मान से उत्तर देता, "कल जरूर आऊंगा बाबु जी !" पर न तो वो आता न गुप्ता जी बुरा मानते और न ही उसे हर दिन टोकना छोड़ते। बहुत बार मैंने गुप्ता जी को सुबह हाथ में हेलमेट लिए बिना स्कूटर के जाते देखा, माफ़ कीजियेगा, आते भी देखा। यह सिलसिला भी कई दिन चला, सोचा कोई मित्र इन को अपने साथ स्कूटर पर ले कर जाता होगा (हमारे शहर में दोपहिये पर दोनों सवारियों के लिए हेलमेट अनिवार्य है) परन्तु यह अर्ध सत्य ही निकला, चूँकि मैं व्योमकेश बक्षी के भांति गुप्ता जी पर नजर रखे था तो पता चला कि लिफ्ट तो वे लेते थे परन्तु उस सुविधा के लिए दूसरे व्यक्ति का उन का परिचित होना कोई जरुरी नहीं था । वो अपने इस अभियान के तहत समाज में भाईचारा बढ़ा रहे थे। मेरी उन के प्रति श्रद्धा तब और बढ़ गई जब एक बार शाम को घर वापसी के लिए उन्हें घर से मात्र कुछ कदमो की दूरी पर लिफ्ट मांगते देखा। यहाँ भी लिफ्ट न देने वाले के लिए उन के चेहरे पर कोई मलाल नहीं आता था। ऐसे मौकों पर गुप्ता जी को देख मुझे 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' के लाला घासी राम की याद आ जाती थी जो घसीट्पुर गाँव का बनिया था तथा बहुत मनोयोग से अपने ग्राहकों को कम तोल कर लूटता था। इस धांधली को वो अपना धर्म मान निष्ठापूर्वक निभाते थे और कभी कभार पकड़े जाने पर ग्राहक से मार खा भी बूरा न मानते थे और अगली बार फिर कम तोलते। खैर, गुप्ता जी के हार्न वाला रहस्य लगता था नेताजी सुभाष चंदर बोस की मृत्यु के रहस्य की भांति रहस्य ही रह जाएगा।



खैर, एक दिन शुभ महूर्त (हर घटना का महूर्त तह है) पर मुझे गुप्ता जी के सामने वाले घर में जाने का मौका मिला (वो ही घर जिस के आगे गुप्ता जी के सारे महत्वपूर्ण कार्य संपन्न होते थे)। सुबह के कोई साढ़े नौ बजे होंगे और हमारे बात करते करते युद्ध के बिगुल जैसे गुप्ता जी के चेतक की हुंकार सुनाई देने लगी । मेरे चेहरे पर तत्काल हुए परिवर्तन को उस घर के स्वामी ने देख लिए और कारण पुछा, जिस के उत्तर में मैंने यह हार्न बजने की वजह उन से पूछी। मेरे इस प्रश्न पर दोनों पति पत्नी हंसने लगे।



उन दोनों ने जो बताया वो इस प्रकार था: गुप्ता जी के घर के ऊपर वाली मंजिल में एक सेवानिवृत दत्त साहिब रहते थे। एक बार सच ही गुप्ता जी के स्कूटर का हार्न का बटन ख़राब हो गया था जिस से हार्न लगातार बजता रहता था और गुप्ता जी उसे ठीक नहीं करवाते थे। एक दिन दत्त साहिब ने सहज भावः से गुप्ता जी को उसे ठीक करवाने की सलाह दे दी। गुप्ता जी दत्त साहिब की गाड़ी अपने घर के आगे खड़े होने से पहले ही खफा रहते थे तो यह उन को अपनी भड़ास निकलने का अच्छा मौका मिल गया। फिर क्या था, बटन ठीक हो जाने के बाद भी गुप्ता जी स्कूटर स्टार्ट कर हार्न बजाना शुरू कर देते फिर कुछ समय तक वहां ठहर दत्त साहिब को तपाने के लिए हार्न बजाते रहते और तब तक बजाते रहते जब तक सड़क के अन्तिम छोर तक न पहुँच जाते। दत्त साहिब इस से तपते हो न हो लेकिन गुप्ता जी की आत्मा इस से बहुत तृप्त होती थी और वो दोगुने उत्साह से अपना अगला शिकार ढूंढने निकल पड़ते।



चलिए, मुझे अपनी शंका का समाधान मिल गया है और लगता है गुप्ता जी को कोई नया शिकार मिल गया है क्योंकि अचानक ही उन का हार्न बजना बंद हो गया है।