'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरे लिए हर्षिकेश मुखर्जी की किसी फ़िल्म से कम नहीं। अब तक बीसिओं बार मैंने यह उपन्यास पढ़ा है और अभी और बीसिओं बार पढ़ सकता हूँ। जब भी कोई अन्य पुस्तक पढ़ने को उपलब्ध न हो तो यही उपन्यास मेरे हाथों में रहता है ।
भगवती चरण वर्मा द्वारा रचित यह उपन्यास सर्वप्रथम १९७० में प्रकाशित हुआ था । इस का कालखंड १९२० - २१ से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद १९६० - ६५ तक का है। उपन्यास मूलत: तीन लोगों के आस पास घूमता है, उद्योगपति सेठ राधेश्याम, गृह मंत्री जबर सिंह, तथा पुलिस इंसपेक्टर रामलोचन । तीनो लोग अलग अलग गुणों का प्रतिनिधित्व करतें है। सेठ राधेश्याम एक छोटे से गांव के बनिये का पौत्र है जो घर से निकला था आई सी एस की परीक्षा देने के लिए परन्तु अपनी विलक्षण प्रतिभा, चतुराई और अवसरवादिता से देश का प्रमुख उद्योगपति बन गया। जबर सिंह एक डाकू का वंशज है जिसे उस के भाग्य ने प्रदेश का गृह मंत्री बना दिया । और तीसरा रामलोचन जो कि एक ब्राह्मण परिवार से है तथा मुकदमेबाजी के चलते पुलिस की नौकरी करने को मजबूर था। रामलोचन एक संवेदनशील, निर्मल मन और भावनाशील युवक जो लाग लपेट, छःल कपट से कोसों दूर था, अपने आप को बनावटी लोगों से घिरा पाता है।
उपन्यास देश के उस समय के राजनैतिक, सामाजिक परिवेश पर भरपूर व्यंगात्मक छिंटाकशी है। जहाँ राजनीति में भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और छुरा घोंप संस्कृति का बोलबाला चरम सीमा पर था वहीं जो उद्योगपति स्वंतत्रता प्राप्ति से पूर्व अंग्रेजों का हुक्का भरते थे, आजादी के आस पास गाँधी टोपी और खादी पहन कांग्रेस के कार्यकर्त्ता बन गए तथा कांग्रेस को चन्दा दे दे कर उन लोगों का अन्य लोगों को क्रय करने का व्यापार पहले से अधिक फलने फूलने लगा। आज़ादी के बाद राजनीति की सत्ता शक्ति और पूंजीवाद की धन शक्ति अब मिल जुल कर पूर्ण आज़ादी से आम जनता के रक्त का रसास्वादन करने लगी । सरकारी अफसर, सामंतवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, कम्युनिस्ट या दक्षिणपंथी सभी लेखक के व्यंग पर कसे दिखते हैं ।
उपन्यास का अन्तिम अध्याय 'उठापटक' पुस्तक का सर्वाधिक रोचक हिस्सा है जिस में कहानी के सारे पात्र इकट्ठे हो जातें है। अपनी हरेक योजना में बिना अवरोध लगातार सफल होने वाले और "समस्त भावना का स्वामी होता है रूपया" का निरंतर जाप करने वाले राधेश्याम जैसे लोगों को ग़लत सिद्ध करने वाला अगर कोई था तो वह था रामलोचन पाण्डेय ।
उपन्यास आरंभ करने के बाद व्यग्रता रहती है इसे जल्दी समाप्त करने की परन्तु कहानी के अन्तिम पृष्ठों पर मन करता है कि कहानी अभी और चलनी चाहिए। भगवती बाबु के प्रत्येक चरित्र के मुंह से निकली बात पाठक के हृदय पर अंकित हो जाती है और हर घटना सोचने को विवश करती है। यह कथा बेशक आधी शताब्दी पूर्व की हो लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक और पठनीय है । निसंदेह 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरी प्रिय पुस्तकों से एक हैं तथा ऐसी और कहानिओं की मुझे सदैव तलाश रहेगी ।
6 comments:
Is Kitab Ke Barey Mein Suna To Hai, per kabhi padhi nahin. Zaroor padhna chahoonga!
" सबहिं नचावत राम गोसाईं " शीर्षक ही अनायास आकर्षित करता है , इस उपन्यास के बारे मे उक्त आकर्षक विचार व कथानक पढनें के बाद पुस्तक पाने व पढनें की अभिलाषा तीव्र हो गई है ।
aabhaar... behtareen
बहुत अच्छा उपन्यास। मैंने वर्मा जी के और उपन्यास भी पढ़े हैं जिनमे भी इस उपन्यास के तरह छोटे छोटे पात्र रातोंरात राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पात्र बन जाते हैं। छोटा सा दुकानदार कैसे उद्योगपति बन जाता है, बुद्धिबल और परिचय से,यह वर्मा जी के उपन्यास दुनियां में देखने में आता है। उनके उपन्यास में स्त्री पुरुष की नई मित्रता भी संबंध के चरम पर बहुत शीघ्र पहुंच जाती है। जबर सिंह की मां कौन थी, कैसी थी आदि। उपन्यास बहुत अच्छा है, राम लोचन द्वारा राधेश्याम की गिरफ्तारी वह भी एक भद्र और सम्मान्य महिला की sah se bahut संतोष प्रद लगती है।
मैंने इसे पढ़ा बेहतरीन है
Kya aap is उपन्यास ki pdf download kar sakte ho, college ke dino me paea tha, ab दुबारा parna chahte hai, please pdf share kar दीजिए... thanks
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