Sunday, March 15, 2009

'चाँद मेरा दिल'

'घूम घुमा गधी फिर पीपल नीचे ही आ गयी न।' उस ने जैसे कोई घोषणा की हो। हालाँकि अपने उपन्यास पढ़ते पढ़ते नाश्ता करते मैं उस का तमकना न देख पाया। 'तुम्हारा भी कोई भरोसा नहीं है..................' काफी देर से वो हमेशा की तरह कुछ बड़बड़ कर रही थी और मैं हमेशा की तरह खाली हूँ - हूँ कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था। मेरी थाली में पटके गए परांठे ने अब मुझे उस की बात्तों को ध्यान से सुनने को मजबूर कर दिया। अगर मैं उस की और ध्यान न देता तो निश्चित ही अगला परांठा और भी जोर से गिरने वाला था। गुस्से में आवाज के साथ साथ डायनिंग टेबल से रसोई तक की उस की चाल भी काफी तेज हो गयी थी। "...........................आख़िर मर्द हो।" मैंने सुना।

मैंने अब उपन्यास बंद कर अपने ऐसे क्रिया-कलापों का हिसाब लगना शुरू किया जिस के बदले उस के यह अग्नि-बाण हो सकते थे। परन्तु मुझे ऐसी कोई हरकत ध्यान न आयी कि जिस की बात्तें सुनना अभी बाकी हों। 'अरी भाग्यवान, हुआ क्या ? ' मैंने अन्तत: पुछा। उस ने मेरी और ऐसे देखा जैसे मैं सब जानते हुए भी अनजान बन रहा हूँ। 'अब बतायो भी, क्या हो गया, और जरा सब्जी दे दो' मैंने सहजता से बोला। "आखिरकार पत्नी ही काम आती है" उस ने जैसे कोई किला जीतने के बाद सूचना दी हो। "जो यह तुम ज्यादा गलैमरस औरतों के पीछे भागते हो न, आखिर मुंह ही काला होता है।" अब वो मुझे ऐसे समझा रही थी जैसे प्राथमिक कक्षा की टीचर बच्चे को कोई अक्षर समझा रही हो। मेरा दिल जोर से धड़का, मेरा ऐसे कौन सा चक्कर था जिस के बारे में मुझे ही ख़बर न थी। 'अरे तुम क्या कह रही हो, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा" मैंने झुंझला कर कहा। "हाँ हाँ तुम्हे कोई बात क्यों समझ आने लगी, वैसे तो बड़े अपडेटिड बनते हो , सारा दिन अख़बारों में सर दे रखते हो, पर यह बात समझ नहीं आ रही" उस ने मेरा पलस्तर उखाड़ना शुरू कर दिया था। "अरे मेरी आशकी का कोई फसाना किसी अखबार में छप गया क्या ?" मेरा धैर्य अब जवाब दे रहा था। "तुम्हारा फसाना भी छप जाएगा किसी दिन, आजकल बहुत सज-धज कर जाते हो" उस ने त्योरी चढ़ा ललिता पवार जैसे ताना मारा। "मैं तो हमेशा ही सजा-धजा रहता हूँ, इस में क्या है ?" टेबल से उठते मैंने कहा। "हाँ हाँ, हमेशा ही सजे रहते हो कि क्या पता कब कौन सी टकरा जाए।" मेरे पीछे पीछे वो बाथरूम तक आ गई, स्पष्ट था वो विषय समाप्त करने के मूड में नहीं थी। "अरे मेरे ऐसे भाग्य कहाँ जो कोई हसीना टकरा जाए" हाथ धोते धोते मैंने उसे चिढाने के लिए कहा। "ज्यादा उड़ो मत, जिन के ऐसे भाग्य हैं उन पर क्या बीतती है, जानते हो ? उस ने कहा। "ओफो, अगर कुछ कहना है तो कहो वरना मैं चला" मैंने धमकाने का थका सा प्रयास किया।



"आख़िर बीवी के पास ही आना पड़ा ना ?" उस ने मुझे चिडाते हुए पूछा ? "किसे?? मुझे?" मैंने झुंझुला कर पूछा । "अरे तुम किस खेत की मूली हो," उस ने मुझे उपेक्षा से देखते हुए कहा, "मैं उस मुह्जले चाँद मोहम्मद की बात कर रही हूँ।" आख़िर उस ने रहस्य से परदा उठाया और मैंने जरा चैन की साँस ली। "मुंह काला करवा कर घर लौटना पड़ा ना ?" उस ने विजेता भाव से एक त्योरी चढा कहा। "ठीक है यार, पर इस में मैं कहाँ फिट होता हूँ, तुम मेरी चढाई क्यों कर रही हो' ?" मैंने तंग आ कर पूछा । 'ये सबक हैं तुम जैसे मर्दों के लिए, कुछ सीखो, पत्नी पत्नी ही होती है, आख़िर उस के पल्लू में ही सर छुपाना पड़ता है। घर गया, मान गया, धर्म गया, सारी उम्र की बनाई साख गयी, अगली ने पैसा बनाया और काम ख़तम।" वो बिना रुके प्रवचन कर रही थी और मैं ऐसे मुंह बनाये बैठा था जैसे किसी सत्संग में कोई लाउड स्पीकर वाला जबरदस्ती कथा सुनता है।



वो बोलती जा रही थी और मैं मन में चन्द्रमोहन को कोस रहा था जिस ने ख़ुद तो मजे लिए और हमारे जैसों के लिए भाषण छोड़ गया। अगर पछताना ही है तो लड्डू खा कर पछताना बेहतर नहीं? वो ठीक कह रही थी बहुत सारे मर्दों ने इस प्रकरण से सबक लिया होगा...................... किस तरह से इस परिस्थिति को आने नहीं देना है और अपना चक्कर चुप-चाप चलाना है। आमीन।





2 comments:

P.N. Subramanian said...

घरवाली से ही सन सीखनी पड़ती है. आलेख अच्छा लगा. आभार. क्या आपने अपने ब्लॉग को ब्लोग्वानी वगैरह में फीड नहीं किया है?

Anonymous said...

Very interesting write up.... :-D

But reading it I'm wondering what she would do if you were in Chand Mohammad or Chandra Mohan place. I think instead of paratha, she would have been thrown you very hardly :P

BTW, who is this Chand Mohammad or Chandra Mohan and what is his matter?

Juneli