Friday, April 10, 2009

'मित्तर प्यारे नू'


जीवन में जरा सी विषम परिस्थिति आने पर हम लोगों का ईश्वर पर विश्वास डगमगाने लगता है। "हम ने तो किसी का कभी बुरा नहीं किया फिर भगवन हमारे साथ ये अन्याय क्यों कर रहा है? हमारा तो भगवान ने भी साथ छोड़ दिया !" इत्यादि इत्यादि प्रलाप हम करना शुरू कर देते हैं। अगर यह विषम परिस्थितियाँ और अधिक कठिन हो जायें तो लगता है सारा उसी भगवान का षडयंत्र है, हम अपने को ईश्वर के ही विरुद्ध खड़ा पाते हैं ।

गुरु गोबिंद सिंह जब मुगलों के विरुद्ध संघर्षरत थे तो चमकौर साहिब के किले में औरंगजेब की फौज ने गुरूजी को उन के केवल चालीस साथियों सहित घेर लिया। उन के दो तरुण बेटे अजीत और जुझार इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक अन्य साथी लड़ाई में काम आए। जिस किले में गुरु जी और उन के शिष्यों ने मोर्चा बना रखा था उस का मुग़ल सेना के हस्तगत होना तय था। अपने बचे हुए पाँच शिष्यों के तीव्र आग्रह पर गुरु गोबिंद जी ने अनमने रातों-रात वेश बदल उस किले से निकल जाना स्वीकार किया। किले से निकल दिसम्बर की कड़कती ठण्ड में, बहुत दिनों तक गुरूजी जंगलो में अकेले भटकते रहे। मुगलों के विरुद्ध अपने लंबे संघर्ष में, अपने पिता, अपने चारों पुत्रों और अनगिनत शिष्यों के बलिदानों के बावजूद राष्ट्र, समाज और धर्म की अस्मिता विदेशी आक्रान्तायों के पैरों तले कुचली जा रही थी। आशा की कोई किरण नहीं थी। मुगलों के विरुद्ध हिंदुस्तान का युद्ध पराजय की ओर अग्रसर था, उस कठोर समय में गुरूजी की मानसिक परिस्थिति क्या रही होगी, यह उनके श्रीप्रभु को लिखे कई शब्दों में प्रर्दशित होता है। जिन में से एक मुझे बहुत प्रिये है।


मित्तर प्यारे नू, हाल मुरीदां दा कहिना ॥


तुध बिन रोग रजाईयां दा औडन, नाग निवासां दे रहिना ॥


सूल सुराही खंजर प्याला बिंग कसाइयां दा सहिना ॥


याराडे दा सानु सथ्थर चंगा पठ खेड़यां दा रहिना ॥


मेरी सीमित क्षमतानुसार इस में गुरुजी अपने उन साथियों को जो प्रभु चरणों में लीन हो गए को स्मरण कर उन से भगवान् को अपनी दशा बताने का अनुरोध कर रहे हैं : प्रिये मित्र (प्रभु) को भक्तों की दशा बताना। आप (प्रभु) बिना रजाई रोग और घर जैसे नागों के बीच रहना है । सुराही कांटे और प्याले खंजर से तेजधार हैं, (आप की अनदेखी) जैसे कसाई के हवाले होना। मित्रों (प्रभु) के घास-फूस के बिस्तर के आगे हमें महल भी आग की भट्ठी जैसे हैं।






इतनी घोर विषमता में भी उनका विश्वास ईश्वर पर अटल रहा। 'नानक नाम जहाज़ है' फ़िल्म में मोहम्मद रफी ने अपनी मोहक आवाज़ में इस शब्द को बहुत सुंदर गाया है। जिन्दगी में सब कुछ खो कर भी अपनी आशा और विश्वास बनाये रखने का गुरु गोबिंद जी का संदेश सुन मन को बहुत संबल मिलता है।



Thursday, April 2, 2009

चार पंक्तियाँ !

कल शाम हमारे शहर में पंडित हरी प्रसाद चौरसिया जी का बांसुरी वादन था। नवीन (एक हमफितरत मित्र) को फ़ोन किया तो उन्होंने असमर्थता जताते सुचना दी कि सांय ७:०० बजे से आस्था चैनल पर स्वामी रामदेव जी द्वारा प्रायोजित वीर रस कविता गायन का कार्यक्रम वो छोड़ना नहीं चाहते और साथ ही मुझे भी सपरिवार रात्रि भोज पर वो कार्यक्रम देखने का निमंत्रण दे डाला। नवरात्रों के उपवासों (मित्रगण जानते हैं कि यह उपवास मेरे लिए कितने भारी होतें हैं) के चलते मैं यह स्नेहिल निमंत्रण नहीं ले पाया परन्तु अपने घर कार्यक्रम देखने का तय किया। अब यह अलग विषय है कि मैं अपने ऑफिस से साढ़े आठ से पहले न निकल पाया।


घर जा टीवी लगाया तो कार्यक्रम जोर शोर से चल रहा था। मंच पर स्वामीजी के साथ कई विख्यात- कुख्यात कवि बैठे थे। आज कल टीवी -शीवी पर ज्यादा कवि सम्मलेन नहीं आते जिन कारण मंच प्रतिष्ठित अधिकाँश सज्जनों के नाम मैं नहीं जानता था । उस समय एक युवा कवि ने अपना पाठन समाप्त ही किया था और उन की कविता पाठन की समाप्ति ने मंच संचालक कवि श्री हरी ओम पंवर जी के चेहरे पर असीम चैन का रंग बिखेर दिया। मेरे मन में हर विधा के कलाकारों के लिए असीम सम्मान है, (इस का एक कारण मेरा Gemini होना भी हो सकता है, बचपन में गलती से मैंने लिंडा गुडमैन नामक एक वुमैन की किताब पढ़ ली थी जिस में उन्होंने संसार की कोई कला ऐसी न छोड़ी जो एक जैमिनी में न हो। बस तभी से मुझे हर कला से लगाव हो गया और इन वर्षों में मुझे अपने में किसी कला का कोई 'Master' तो न दिखायी दिया लेकिन 'Jack of All' सुबह शाम मिलता हैं ) और यह सम्मान कविओं के लिए विशेष है अब चाहे अपने निजी जीवन में वो कितने ही आलतू- फालतू ही क्यों न हों। मैं अपने को कवि सपने में भी नहीं समझता। दूर-दूर तक मेरे में यह हूनर नहीं है। ये अलग बात है की सुंदर बालायों (बलायों' भी पढेंगे तो चलेगा) की कुछ वाह-वाही लुटने के लिए मैंने भी कुछ शब्दों के हेर फेर करना सीख लिया है। परन्तु मैं ही जानता हूँ कि इन तथाकथित कवितायों में स्वाभाविक काव्य न हो कर गणित का ही जोड़-तोड़ है।


खैर बात हो रही थी पंवर जी के राहत भरे श्वास की। कलिष्ठ शब्दों में प्रसंशा की मिश्री के साथ साथ उन की आँखें उस युवा कवि को इतना समय लेने की लिए वहीँ भस्म कर देने को जल रहीं थीं। अब एक प्राचीन कवि ने वीर रस टपकाने के लिए स्टार्ट लिया तो लगा कि अगर सन ६२ में उन ने यह प्रयास किया होता तो शायद हम चीन युद्ध जीत गए होते। इस 'ड्रोन युद्ध' के वातावरण में उन के फेफडे उन का साथ नहीं दे पा रहे थे। कपड़े वगैहरा बदलने से निवृत हो जब मैं दुबारा सुनने बैठा तो पंवर जी जिस कवि को 'शमा' के आगे आने का निमंत्रण दे रहे थे वो भी एक ज्वलनशील युवा थे और उन के नाम के आगे डॉक्टर भी लगा था। (पूरा नाम नहीं लिखूंगा, सुना है आजकल ब्लोगरों पर भी केस हो जाता है) अब इस निमंत्रण में आग्रह कम और कम समय लेने का क्रुदन बार बार था। यह कवि लोग भी अजीब झक्खी होतें हैं। मंच के पीछे तो यह एक दूसरे का गला काटने को तत्पर होते हैं और मंच पर 'तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूँ' के निर्मल सिद्धांत के तहत एक-दूसरे की उन कवितायों पर वाह-वाह की बौछार करते हैं जो इन्होने हजारों बार सुन रखी होती हैं ।


पंवर जी हर कवि को कम से कम समय लेने और बिना भूमिका के सीधा कविता पर आने का आग्रह करते तो दूसरी और स्वयं भूमिका बांधने में पूरा समय लेते। एक अन्य विषय इन कवियों के ऊपर अन्वेषण का है कि हर कवि अपनी विदेश यात्रायों का जिक्र जरूर करता है। पंवर जी ने भी किया तो उन के मुकाबले में इस युवा कवि ने अपने चक्कर लगाये प्रत्येक देश के शहरों की गिनती गिना दी। अपनी भूमिका में उस कवि ने संचालक के सीधा कविता पाठन की याचना की धज्जियाँ उड़ा दीं। उस के बाद भी अपनी प्रत्येक चार पंक्तियों में वो कवि जी हर पंक्ति के बाद दो पंक्तियों में जनता से समर्थन देने का आग्रह और न मानने पर खानदान तक पहुँचने की धमकी भी देते। राम-राम करते उन की कविता समाप्त हुयी ही थी कि इस अवसर की ताक में बैठे संचालक ने तपाक स्वामी रामदेव जी की दुहाई दे एक विशेष कविता पढ़ उनसे अपना पाठ समाप्त कर युद्ध विराम का पुन: असफल प्रयास किया। परन्तु इस कवि ने ठान रखा था चाहे जो हो जाए मैंने इस साले संचालक की कोई नहीं सुननी और अपनी ही सुनानी है। 'लाइव' कार्यक्रम में इस रस्सा-कशी ने पूरे कार्यक्रम को भोंडा बना दिया। मेरा सारा उत्साह इन कवियों की अनुशासनहीनता ने रद्दी की टोकरी में डलवा दिया। इस अवसरवादिता के बेशर्म प्रदर्शन में उस कवि की कवितायों का एक शब्द भी हृदय में न उतर सका। (और मैं जानता हूँ की वो एक अच्छा कवि है) अपना पूरा समय लेने के बाद उस कवि ने अपनी वेबसाइट का ब्योरा दे अपना विज्ञापन भी जारी कर दिया। अब किसी और कवि को सुनने का मेरा कोई इरादा नहीं था और न ही इस कवि का जो दूसरे कविता-पाठों के समय मंच पर अपने मोबाइल से खेलने का काम करता रहा।

समाज की कुसंगातियों को अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को दिशा देने का काम यह कवि करते हैं। परन्तु अपने ऐसे प्रदर्शन से इन की छवि उस दिशा-सूचक पट्ट से अधिक नहीं रहती जो राहगीर को दिशा ज्ञान तो देते हैं लेकिन स्वयं सारा जीवन उसी खूंटी पर टंगे रहते हैं ।

मेरा यह रोष केवल ऐसी घटनायों के प्रति है। अन्यथा ऐसे बहुत से कवि/लेखक हैं जिन से मैं प्रेरणा और संबल प्राप्त करता हूँ।


Wednesday, April 1, 2009

पारस या दीपक ?


ज्ञान दत्त पाण्डेय जी की दार्शनिक पोस्ट 'पारस पत्थर' ने मेरे मन में एक अन्य विषय चला दिया। उन्ही की बात को सादर आगे बढाते मैं सोचता हूँ कि भाग्यशाली लोगों के जीवन में कोई न कोई ऐसा व्यक्तित्व आता है जिस के आभा मंडल में उन का जीवन दर्शन बदल जाता है। व्यक्ति की सोच-विचार, जीवन-पद्धति, आचार-व्यवहार सब कुछ बहुआयामी हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व को पारस कहना स्वाभाविक ही है। एक बिना मूल्य के जंग खाए लोहे के कबाड़ी टुकड़े यदि ऐसा पारस छु भर ले तो वो बहुमूल्य , बहुगुणी गरिमायुक्त स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। (अब यह परावर्तन चाहे शारीरिक हो चाहे मनो:वैज्ञानिक) । कुछ लोगों का भाग्य तो इतना प्रबल होता है कि उन को अपने जीवन काल में ऐसे अनेक गुणीजनों का सानिद्ध्य प्राप्त होता है। यह विशिष्ट आत्माएं किसी दीपक जैसे अपने दिव्यप्रकाश से हमारे जैसे आम व्यक्ति के जीवन में भी उजाला कर देते हैं। तो इस दृष्टि से इन पारस सरीखे व्यक्तित्व को हम दीपक भी बुला सकते हैं।

अब मुद्दे की बात यह है कि किस का महत्त्व अधिक है, पारस का या दीपक का ? एक बारगी तो दोनों ही एक से लगते हैं। परन्तु इन दोनों में बहुत अन्तर है। पारस निश्चित ही लोहे को सोना बना देता है, परन्तु वो सोना पारस नहीं बनता। उस सोने का स्वयं का जीवन तो बदल जाता है परन्तु वो किसी और लोहे के टुकड़े को सोना नहीं बना सकता। पारस लोहे को सोना तो बना देता है परन्तु अपने इस विशिष्ट गुण को किसी और को नही देता। यहाँ पारस की सार्थकता कम हो जाती है। और दूसरी ओर एक दीपक अनेक दीपक जला सकता है और वो प्रकाशित दीपक अन्य हजारों दीपक जला हजारों व्यक्तियों के जीवन में प्रकाश ही नहीं लाते बल्कि उन को आगे वो प्रक्रिया बढ़ाने का अपना विशेष गुण भी देते हैं।

तो मुझे लगता है कि अपने जीवन में दैवयोग से आए ऐसे महाजनों से हम दीपक बन गुण ग्रहण करें ताकि उन के वो आदर्श विचार और दर्शन हम केवल अपने तक सीमित न रख सम्पूर्ण समाज को प्रकाशमान कर सकें और यह प्रक्रिया सतत् चलती रहे। आज के इस घोर कलयुग में हमें ऐसे अधिक से अधिक दीपकों की आवयश्कता है।