Saturday, April 26, 2008

वाह विवाह !

यूं हिमाचल के किसी सुदूर गाँव के कोई विवाह समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए नई बात नहीं है परन्तु इस बार नरेश के विवाह पर मन में कई विचार उठे।


वैसे तो सोचने में ये ओछा ही लगता है, पर मैं उस विवाह पर आए संभावित खर्च के विषय में सोच रहा था। बात केवल नरेश के विवाह की नहीं है। प्राय: सभी हिमाचली ग्रामीण विवाह अत्यंत सादे व तड़क भड़क से परे होतें हैं। बहुत अधिक लेनदेन नहीं होता, कपड़े लत्ते या आभूषण अपने सामर्थ्य अनुसार और संगीत के नाम पर कान फोडू , कर्कश और भद्दे फिल्मी गानों की बजाय स्थानीय कर्णप्रिये लोक संगीत ही होता है। दावत पर खिलाए जाने वाली धाम में भूमि पर आसीन आतिथिओं को सदैव पत्तल में दाल भात ही रहता है चाहे किसी भी स्तर का व्यक्ति क्यों न हो। तो फिर चाहे कितने भी बाराती हों, मेजबान की जेब और चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। अन्यथा भी स्नेहपूर्वक खिलाए जाने वाला साधारण दाल भात, धक्के मुक्की से प्राप्त होने वाले छप्पनभोगों से कहीं अधिक स्वादिष्ट व तृप्तिदायक होता है।


खैर बात हो रही थी शादी पर आने वाले खर्चे की। मेरे अनुमान से इस विवाह पर अधिक से अधिक तीस या चालीस हजार का व्यय हुआ होगा। ऐसा नहीं है कि यह परिवार संपन्न या शिक्षित नहीं था, वर स्वयं अधिवक्ता, उस का अग्रज निर्माण विभाग में अभियंता तथा पिता सेवानिवृत सरकारी अधिकारी थे। परन्तु सादगी ग्रामीण क्षेत्रों में दैनिक जीवन पद्दति है।


लेकिन क्या हम कल्पना कर सकते हैं इस प्रकार की सादगी शेष उत्तर भारत में? विशेषकर पंजाब में अनावश्यक दिखावा बहुत अधिक है। नगरीय या ग्रामीण, प्रत्येक स्थान पर मिथ्या एश्वर्य का प्रदर्शन बेहूदगी की सीमा लाँघ जाता है।ऋण में सर तक डूब कर ही क्यों न अपनी शान बघारी जाए पर खर्चा लाखों करोडों से कम नहीं होना तय है । नवीनता के नाम पर नए नए प्रयोग हो रहें हैं। अतिथिओं के मनोरंजन के लिए अशलीलता के दरबार लगे मिलते हैं। हजारों तरह के व्यंजन व पकवान होतें हैं पर उन का सेवन वही कर सकता है जिस ने अपनी गरिमा बेच खायी हो और चील से झपट्टा मारने की कला सीखी हो। शालीन अतिथि को तो भूखे पेट ही वापिस लौटना पड़ता है। आजकल तो एक नया प्रचलन चल पड़ा है कि लड़की दुल्हे को ब्याहने अपने ससुराल बारात लेकर आती है। अंतत: इस नवीन प्रथा के पीछे भी आर्थिक पहलू ही काम कर रहा है। छोटे छोटे गांवों में भी दहेज़ को लेकर झगडे हो रहें हैं। जहाँ तक मुझे ध्यान आता है, मैंने कभी हिमाचली गांव में दहेज़ संबंधित विवाद नहीं देखा।


यहाँ मुझे 'God Must Be Crazy' नामक फ़िल्म में वह आदिवासी परिवार की याद आती है जो 'जंगली' हो कर भी पूर्णतया: प्रसन्न और संतोषी था, परन्तु एक दिन किसी पायलट द्वारा फेंकी गयी कोला की खाली बोतल के कारण झगडे का केन्द्र बन जाता है, और फिर उस परिवार का मुखिया उस 'मुसीबत की जड़' बोतल को दुनिया के अन्तिम किनारे से नीचे फेंकने का संकल्प लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा पर पैदल निकल पड़ता है।


तो शायद हम लोग भी आधुनिकता व तथाकथित शिक्षित होने के ढोंग में अपना जीवन जंजाल बना रहें हैं। हर कोई मन में कुछ, चेहरे पर कुछ और वाणी में कुछ और लिए बनावटी जिन्दगी जी रहा है तथा इस आपाधापी में अपनी सही पहचान भूल गया है। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि आजकल घर से निकलने के समय हमें कितनी सारी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है, रुमाल, चश्मा, चाबियाँ, घड़ी, मोबाइल, लैपटॉप, पर्स इत्यादि। सूचि और भी लम्बी हो सकती है लेकिन इस से कम तो कदापि नहीं। इन में से एक भी छुटने पर हम सारा दिन अपाहिज सा अनुभव करतें हैं। तो यह वस्तुएं हमारी सुविधा के लिए हैं या हम इन के गुलाम? लगता तो गुलामों वाला मामला ही है। यह हमारे लिए नहीं हम इन के लिए हो गए हैं। और कुछ लोग मात्र एक धोती लोटे में भी 'झकास' जीवन जीतें हैं।


साधू हो जाना सभी के लिए सम्भव नहीं है और न ही आवश्यकता, परन्तु इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ झूठे दिखावे को त्याग यथासंभव सादगी पूर्ण जीवन जीने का प्रयास तो हम कर ही सकतें हैं। एक दो दिन कर देखें शायद सच ही हम परम संतोष अनुभव करें, देखें कहीं 'गाय न बच्छी नींद आए अच्छी ' कहावत चरित्रार्थ हो जाए।



3 comments:

राज भाटिय़ा said...

प्रण्या भाई आप का लेख आज के हिसाब से बहुत उचित हे, यह बात पंजाब की नही पुरे भारत के शहरो की हे, ओर हर तरफ़ दिखावा, ओर यह दिखावे की जिन्दगी ही अब लोगो को अच्छी लगने लगी हे,साधरण रहना मुस्किल लगता हे लोगो को, ओर जो रहते हे उन्हे गवार कहा जाता हे,आप की बात ठीक हे बेशर्मी को आज अधुनिकता का नाम दे दिया जाता हे, कभी लड्कियो को देखो, (सभी नही२० ३० % फ़िर भी ) शरीफ़ आदमी की नजरे झुक जाती हे,इन लडकियो की पोशाक देख कर,लेकिन लडकी के मां बाप को या लडकी को कोई फ़र्क नही पडता,हम अधुनिक हो रहे हे या बेशर्म अब पता नही ?

Anonymous said...

Pardon me for writing me in English. But I THOUGHT God has stopped creating persons like you who still think about such things and society. One can hardly find such post in the blogging world.

Praney ! said...

Aap bilkool theek kahten hai Raj Ji. Abhivaykti ke swatantrta ke naam per sub kuch chal raha hai.

Hey Alka, kyon jhad par chada rahi ho bhai. I wrote what came to my mind, not a big deal. But thanks for encouraging !