Sunday, March 16, 2008

'सबहिं नचावत राम गोसाईं'

'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरे लिए हर्षिकेश मुखर्जी की किसी फ़िल्म से कम नहीं। अब तक बीसिओं बार मैंने यह उपन्यास पढ़ा है और अभी और बीसिओं बार पढ़ सकता हूँ। जब भी कोई अन्य पुस्तक पढ़ने को उपलब्ध न हो तो यही उपन्यास मेरे हाथों में रहता है ।

भगवती चरण वर्मा द्वारा रचित यह उपन्यास सर्वप्रथम १९७० में प्रकाशित हुआ था । इस का कालखंड १९२० - २१ से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद १९६० - ६५ तक का है। उपन्यास मूलत: तीन लोगों के आस पास घूमता है, उद्योगपति सेठ राधेश्याम, गृह मंत्री जबर सिंह, तथा पुलिस इंसपेक्टर रामलोचन । तीनो लोग अलग अलग गुणों का प्रतिनिधित्व करतें है। सेठ राधेश्याम एक छोटे से गांव के बनिये का पौत्र है जो घर से निकला था आई सी एस की परीक्षा देने के लिए परन्तु अपनी विलक्षण प्रतिभा, चतुराई और अवसरवादिता से देश का प्रमुख उद्योगपति बन गया। जबर सिंह एक डाकू का वंशज है जिसे उस के भाग्य ने प्रदेश का गृह मंत्री बना दिया । और तीसरा रामलोचन जो कि एक ब्राह्मण परिवार से है तथा मुकदमेबाजी के चलते पुलिस की नौकरी करने को मजबूर था। रामलोचन एक संवेदनशील, निर्मल मन और भावनाशील युवक जो लाग लपेट, छःल कपट से कोसों दूर था, अपने आप को बनावटी लोगों से घिरा पाता है।

उपन्यास देश के उस समय के राजनैतिक, सामाजिक परिवेश पर भरपूर व्यंगात्मक छिंटाकशी है। जहाँ राजनीति में भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और छुरा घोंप संस्कृति का बोलबाला चरम सीमा पर था वहीं जो उद्योगपति स्वंतत्रता प्राप्ति से पूर्व अंग्रेजों का हुक्का भरते थे, आजादी के आस पास गाँधी टोपी और खादी पहन कांग्रेस के कार्यकर्त्ता बन गए तथा कांग्रेस को चन्दा दे दे कर उन लोगों का अन्य लोगों को क्रय करने का व्यापार पहले से अधिक फलने फूलने लगा। आज़ादी के बाद राजनीति की सत्ता शक्ति और पूंजीवाद की धन शक्ति अब मिल जुल कर पूर्ण आज़ादी से आम जनता के रक्त का रसास्वादन करने लगी । सरकारी अफसर, सामंतवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, कम्युनिस्ट या दक्षिणपंथी सभी लेखक के व्यंग पर कसे दिखते हैं ।

उपन्यास का अन्तिम अध्याय 'उठापटक' पुस्तक का सर्वाधिक रोचक हिस्सा है जिस में कहानी के सारे पात्र इकट्ठे हो जातें है। अपनी हरेक योजना में बिना अवरोध लगातार सफल होने वाले और "समस्त भावना का स्वामी होता है रूपया" का निरंतर जाप करने वाले राधेश्याम जैसे लोगों को ग़लत सिद्ध करने वाला अगर कोई था तो वह था रामलोचन पाण्डेय ।

उपन्यास आरंभ करने के बाद व्यग्रता रहती है इसे जल्दी समाप्त करने की परन्तु कहानी के अन्तिम पृष्ठों पर मन करता है कि कहानी अभी और चलनी चाहिए। भगवती बाबु के प्रत्येक चरित्र के मुंह से निकली बात पाठक के हृदय पर अंकित हो जाती है और हर घटना सोचने को विवश करती है। यह कथा बेशक आधी शताब्दी पूर्व की हो लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक और पठनीय है । निसंदेह 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' मेरी प्रिय पुस्तकों से एक हैं तथा ऐसी और कहानिओं की मुझे सदैव तलाश रहेगी ।


Saturday, March 8, 2008

वसुदेव

श्री कृष्ण की जन्मगाथा से हम सभी भली भांति परिचित हैं । महिर्षि नारद तथा अन्य भाविष्यवक्ताओं द्वारा की गई घोषणाओं से भयभीत हो मथुरा के अत्याचारी शासक कंस ने अपनी ही बहन व उस के पति राज्य के धर्माधिकारी वसुदेव की हत्या का प्रयास किया वो भी उन के विवाह के अवसर पर ही। परन्तु वसुदेव की सूझ बूझ से उन दोनों की असामयिक मृत्यु कुछ देर के लिए तो टल गयी लेकिन उन की आने वाली संतानों की प्रसव शैय्या पर ही मृत्यु अवशम्भावी थी। अनेक कथाएँ इन घटनाचक्रों पर लिखी गयीं हैं परन्तु अधिकांश सभी कथाकारों ने देवकी व वसुदेव के विषय में थोड़ा बहुत लिख कर मुलत: श्री कृष्ण पर ही ध्यान केंद्रित किया है।


नरेन्द्र कोहली द्वारा लिखित उपन्यास 'वसुदेव', उन्हीं देवकी वसुदेव की अटल जिजीविषा की कथा है । अपने बच्चों के जरा से कष्ट पर हम सभी किस प्रकार व्यथित हो अपनी सारी क्षमता से वह कष्ट दूर करने का प्रयास करतें हैं और जरा सोचिये देवकी वसुदेव की मनोस्थिति जिन की संतानें उन्हीं की आँखों के सामने कंस के क्रूर हाथों मारीं गयीं वो भी एक दो नहीं अपितु छ:। लगभग बीस वर्षों का यह अतुलीनीय और असहनीय संग्राम, जो अपनी संतानों का बलिदान मांगे किसी साधारण मानस के लिए सम्भव नहीं है। नरेन्द्र कोहली ने यह गाथा केवल आध्यात्मिक पक्ष की न रख आधुनिक सन्दर्भ से जोड़ कर सरल व्यवहार में लिखी है। कहानी द्वापर युग की होने के पश्चात् भी आज की परिस्थितियों से जोड़ी जा सकती हैं। उपन्यास में श्री कृष्ण के जन्म संबंधित घटनाएँ तथा उन के आलोकिक कृत्यों को आज के उन वैज्ञानिक बुद्धि वाले पाठकों को ध्यान में रख कर उकेरा गया हैं जो 'Mythology' और 'Science Fiction' के प्रति अलग अलग दृष्टिकोण रखतें हैं ।

उपन्यास के मध्यांतर पश्चात लगता ही नहीं कि आप कोई ऐतहासिक कथा पढ़ रहे हैं अपितु लगता है आज के ही राजनीतिक व सामाजिक परिवेश का चित्र देख रहे हैं। कंस को प्रसन्न करने के लिए उस के मंत्रियों सहित समाज के बुद्धिजिवियों द्वारा अपनी आत्मा बेच देने का अध्याय आज का ही लगता है। इतना ही नहीं कंस के एक शिक्षा मंत्री के कारनामें, नाम व ब्योरा अनायास ही पाठक के चेहरे पर मुस्कान ला देता है। लेखक ने पूरी क्षमता से समाज को जागृत करने का प्रयास किया है जो अपने वातानुकूलित कक्षों में बैठ देश की अच्छी बुरी दशा पर अपनी राय देतें हैं और स्वयं वोट देना भी शर्म का काम समझतें हैं । देवकी वसुदेव की इस गाथा का एक मात्र और मुख्य संदेश यही हैं कि राष्ट्र की प्रत्येक समस्या का स्रोत, संताप और समाधान राष्ट्र के समाज में ही होता है और समाज के वसुदेव जैसे मनीषियों के बलिदानों से ही देश सुरक्षित व सभ्य रह पाता है। श्री कृष्ण जैसे अवतारों का अवतरण भी इन्हीं मनीषियों की तपस्या का परिणाम होता है न कि कोई स्वाभाविक प्रक्रिया ।

देश व समाज की हर समस्या पर शासक व राजनीति को दोष न दे कर स्वयं अपना धर्म निभाना और फिर उस कर्तव्यपूर्ति पश्चात किसी पुरस्कार की अपेक्षा न करने का संदेश ही संभवत: लेखक का निहित उद्देश्य है ।


Monday, March 3, 2008

मनोगत:

मन है कि कभी विराम ही नहीं लेता । अब ये मन है या बुद्धि ये भी कहना कठिन है परन्तु जो भी है लगातार कुछ न कुछ बुनती ही रहती है । ठीक उस सागर की तरह जिस में हर समय लहरें आतीं रहती हैं । कई बार मन चाहता है की ये कुछ देर तो शांत बैठे, परन्तु नहीं काश कोई बटन होता जिस से मन को सोचने से रोका जा सकता ठीक टीवी के उस विज्ञापन की तरह । परन्तु यह भी तो उसी उन्मुक्त मन की सोच है जिसे मैं लगाम डालना चाहता हूँ।

खैर, आज प्रणय निवेदन के लगभग एक वर्ष बाद इस मन की इच्छानुसार पाथेय कण का निर्माण हो गया है । अब पता नहीं कितना मार्ग तय कर पायगा । देखेगें !