Friday, December 25, 2009
sansad ke aam !
परन्तु...............परन्तु यह राजनीति करने वाले भी हद करतें हैं. हर दिन यह कोई ऐसा काण्ड करतें हैं कि मेरा जैसा समर्थक भी इनको जूते मारने को दौड़े. इस का लेटेस्ट उदाहरण हैं Times Of India में छपी यह खबर "No Inflation in Parliament Canteen".
संसद की कैंटीन में पाए जाने वाले पदार्थों के भाव देखिये और भाव खाईये. आम आदमी की आम सरकार के लिए आम गुठली के दाम.
समाचार साभार: अलका द्विवेदी
Saturday, October 31, 2009
सिंह का नाद !
सुनिए.................! टीवी पर शेर दहाड़ने वाला है.
Friday, October 30, 2009
हमारी छाती तैयार है !
Sunday, October 4, 2009
शरद पूर्णिमा का चाँद !
आधी रात को कौमुदी में नहाई खीर खाई तो देखा चाँद ने अपना रंग उस खीर में उतार दिया था.
Friday, April 10, 2009
'मित्तर प्यारे नू'
जीवन में जरा सी विषम परिस्थिति आने पर हम लोगों का ईश्वर पर विश्वास डगमगाने लगता है। "हम ने तो किसी का कभी बुरा नहीं किया फिर भगवन हमारे साथ ये अन्याय क्यों कर रहा है? हमारा तो भगवान ने भी साथ छोड़ दिया !" इत्यादि इत्यादि प्रलाप हम करना शुरू कर देते हैं। अगर यह विषम परिस्थितियाँ और अधिक कठिन हो जायें तो लगता है सारा उसी भगवान का षडयंत्र है, हम अपने को ईश्वर के ही विरुद्ध खड़ा पाते हैं ।
गुरु गोबिंद सिंह जब मुगलों के विरुद्ध संघर्षरत थे तो चमकौर साहिब के किले में औरंगजेब की फौज ने गुरूजी को उन के केवल चालीस साथियों सहित घेर लिया। उन के दो तरुण बेटे अजीत और जुझार इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक अन्य साथी लड़ाई में काम आए। जिस किले में गुरु जी और उन के शिष्यों ने मोर्चा बना रखा था उस का मुग़ल सेना के हस्तगत होना तय था। अपने बचे हुए पाँच शिष्यों के तीव्र आग्रह पर गुरु गोबिंद जी ने अनमने रातों-रात वेश बदल उस किले से निकल जाना स्वीकार किया। किले से निकल दिसम्बर की कड़कती ठण्ड में, बहुत दिनों तक गुरूजी जंगलो में अकेले भटकते रहे। मुगलों के विरुद्ध अपने लंबे संघर्ष में, अपने पिता, अपने चारों पुत्रों और अनगिनत शिष्यों के बलिदानों के बावजूद राष्ट्र, समाज और धर्म की अस्मिता विदेशी आक्रान्तायों के पैरों तले कुचली जा रही थी। आशा की कोई किरण नहीं थी। मुगलों के विरुद्ध हिंदुस्तान का युद्ध पराजय की ओर अग्रसर था, उस कठोर समय में गुरूजी की मानसिक परिस्थिति क्या रही होगी, यह उनके श्रीप्रभु को लिखे कई शब्दों में प्रर्दशित होता है। जिन में से एक मुझे बहुत प्रिये है।
मित्तर प्यारे नू, हाल मुरीदां दा कहिना ॥
तुध बिन रोग रजाईयां दा औडन, नाग निवासां दे रहिना ॥
सूल सुराही खंजर प्याला बिंग कसाइयां दा सहिना ॥
याराडे दा सानु सथ्थर चंगा पठ खेड़यां दा रहिना ॥
मेरी सीमित क्षमतानुसार इस में गुरुजी अपने उन साथियों को जो प्रभु चरणों में लीन हो गए को स्मरण कर उन से भगवान् को अपनी दशा बताने का अनुरोध कर रहे हैं : प्रिये मित्र (प्रभु) को भक्तों की दशा बताना। आप (प्रभु) बिना रजाई रोग और घर जैसे नागों के बीच रहना है । सुराही कांटे और प्याले खंजर से तेजधार हैं, (आप की अनदेखी) जैसे कसाई के हवाले होना। मित्रों (प्रभु) के घास-फूस के बिस्तर के आगे हमें महल भी आग की भट्ठी जैसे हैं।
इतनी घोर विषमता में भी उनका विश्वास ईश्वर पर अटल रहा। 'नानक नाम जहाज़ है' फ़िल्म में मोहम्मद रफी ने अपनी मोहक आवाज़ में इस शब्द को बहुत सुंदर गाया है। जिन्दगी में सब कुछ खो कर भी अपनी आशा और विश्वास बनाये रखने का गुरु गोबिंद जी का संदेश सुन मन को बहुत संबल मिलता है।
Thursday, April 2, 2009
चार पंक्तियाँ !
घर जा टीवी लगाया तो कार्यक्रम जोर शोर से चल रहा था। मंच पर स्वामीजी के साथ कई विख्यात- कुख्यात कवि बैठे थे। आज कल टीवी -शीवी पर ज्यादा कवि सम्मलेन नहीं आते जिन कारण मंच प्रतिष्ठित अधिकाँश सज्जनों के नाम मैं नहीं जानता था । उस समय एक युवा कवि ने अपना पाठन समाप्त ही किया था और उन की कविता पाठन की समाप्ति ने मंच संचालक कवि श्री हरी ओम पंवर जी के चेहरे पर असीम चैन का रंग बिखेर दिया। मेरे मन में हर विधा के कलाकारों के लिए असीम सम्मान है, (इस का एक कारण मेरा Gemini होना भी हो सकता है, बचपन में गलती से मैंने लिंडा गुडमैन नामक एक वुमैन की किताब पढ़ ली थी जिस में उन्होंने संसार की कोई कला ऐसी न छोड़ी जो एक जैमिनी में न हो। बस तभी से मुझे हर कला से लगाव हो गया और इन वर्षों में मुझे अपने में किसी कला का कोई 'Master' तो न दिखायी दिया लेकिन 'Jack of All' सुबह शाम मिलता हैं ) और यह सम्मान कविओं के लिए विशेष है अब चाहे अपने निजी जीवन में वो कितने ही आलतू- फालतू ही क्यों न हों। मैं अपने को कवि सपने में भी नहीं समझता। दूर-दूर तक मेरे में यह हूनर नहीं है। ये अलग बात है की सुंदर बालायों (बलायों' भी पढेंगे तो चलेगा) की कुछ वाह-वाही लुटने के लिए मैंने भी कुछ शब्दों के हेर फेर करना सीख लिया है। परन्तु मैं ही जानता हूँ कि इन तथाकथित कवितायों में स्वाभाविक काव्य न हो कर गणित का ही जोड़-तोड़ है।
खैर बात हो रही थी पंवर जी के राहत भरे श्वास की। कलिष्ठ शब्दों में प्रसंशा की मिश्री के साथ साथ उन की आँखें उस युवा कवि को इतना समय लेने की लिए वहीँ भस्म कर देने को जल रहीं थीं। अब एक प्राचीन कवि ने वीर रस टपकाने के लिए स्टार्ट लिया तो लगा कि अगर सन ६२ में उन ने यह प्रयास किया होता तो शायद हम चीन युद्ध जीत गए होते। इस 'ड्रोन युद्ध' के वातावरण में उन के फेफडे उन का साथ नहीं दे पा रहे थे। कपड़े वगैहरा बदलने से निवृत हो जब मैं दुबारा सुनने बैठा तो पंवर जी जिस कवि को 'शमा' के आगे आने का निमंत्रण दे रहे थे वो भी एक ज्वलनशील युवा थे और उन के नाम के आगे डॉक्टर भी लगा था। (पूरा नाम नहीं लिखूंगा, सुना है आजकल ब्लोगरों पर भी केस हो जाता है) अब इस निमंत्रण में आग्रह कम और कम समय लेने का क्रुदन बार बार था। यह कवि लोग भी अजीब झक्खी होतें हैं। मंच के पीछे तो यह एक दूसरे का गला काटने को तत्पर होते हैं और मंच पर 'तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूँ' के निर्मल सिद्धांत के तहत एक-दूसरे की उन कवितायों पर वाह-वाह की बौछार करते हैं जो इन्होने हजारों बार सुन रखी होती हैं ।
पंवर जी हर कवि को कम से कम समय लेने और बिना भूमिका के सीधा कविता पर आने का आग्रह करते तो दूसरी और स्वयं भूमिका बांधने में पूरा समय लेते। एक अन्य विषय इन कवियों के ऊपर अन्वेषण का है कि हर कवि अपनी विदेश यात्रायों का जिक्र जरूर करता है। पंवर जी ने भी किया तो उन के मुकाबले में इस युवा कवि ने अपने चक्कर लगाये प्रत्येक देश के शहरों की गिनती गिना दी। अपनी भूमिका में उस कवि ने संचालक के सीधा कविता पाठन की याचना की धज्जियाँ उड़ा दीं। उस के बाद भी अपनी प्रत्येक चार पंक्तियों में वो कवि जी हर पंक्ति के बाद दो पंक्तियों में जनता से समर्थन देने का आग्रह और न मानने पर खानदान तक पहुँचने की धमकी भी देते। राम-राम करते उन की कविता समाप्त हुयी ही थी कि इस अवसर की ताक में बैठे संचालक ने तपाक स्वामी रामदेव जी की दुहाई दे एक विशेष कविता पढ़ उनसे अपना पाठ समाप्त कर युद्ध विराम का पुन: असफल प्रयास किया। परन्तु इस कवि ने ठान रखा था चाहे जो हो जाए मैंने इस साले संचालक की कोई नहीं सुननी और अपनी ही सुनानी है। 'लाइव' कार्यक्रम में इस रस्सा-कशी ने पूरे कार्यक्रम को भोंडा बना दिया। मेरा सारा उत्साह इन कवियों की अनुशासनहीनता ने रद्दी की टोकरी में डलवा दिया। इस अवसरवादिता के बेशर्म प्रदर्शन में उस कवि की कवितायों का एक शब्द भी हृदय में न उतर सका। (और मैं जानता हूँ की वो एक अच्छा कवि है) अपना पूरा समय लेने के बाद उस कवि ने अपनी वेबसाइट का ब्योरा दे अपना विज्ञापन भी जारी कर दिया। अब किसी और कवि को सुनने का मेरा कोई इरादा नहीं था और न ही इस कवि का जो दूसरे कविता-पाठों के समय मंच पर अपने मोबाइल से खेलने का काम करता रहा।
Wednesday, April 1, 2009
पारस या दीपक ?

ज्ञान दत्त पाण्डेय जी की दार्शनिक पोस्ट 'पारस पत्थर' ने मेरे मन में एक अन्य विषय चला दिया। उन्ही की बात को सादर आगे बढाते मैं सोचता हूँ कि भाग्यशाली लोगों के जीवन में कोई न कोई ऐसा व्यक्तित्व आता है जिस के आभा मंडल में उन का जीवन दर्शन बदल जाता है। व्यक्ति की सोच-विचार, जीवन-पद्धति, आचार-व्यवहार सब कुछ बहुआयामी हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व को पारस कहना स्वाभाविक ही है। एक बिना मूल्य के जंग खाए लोहे के कबाड़ी टुकड़े यदि ऐसा पारस छु भर ले तो वो बहुमूल्य , बहुगुणी गरिमायुक्त स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। (अब यह परावर्तन चाहे शारीरिक हो चाहे मनो:वैज्ञानिक) । कुछ लोगों का भाग्य तो इतना प्रबल होता है कि उन को अपने जीवन काल में ऐसे अनेक गुणीजनों का सानिद्ध्य प्राप्त होता है। यह विशिष्ट आत्माएं किसी दीपक जैसे अपने दिव्यप्रकाश से हमारे जैसे आम व्यक्ति के जीवन में भी उजाला कर देते हैं। तो इस दृष्टि से इन पारस सरीखे व्यक्तित्व को हम दीपक भी बुला सकते हैं।
अब मुद्दे की बात यह है कि किस का महत्त्व अधिक है, पारस का या दीपक का ? एक बारगी तो दोनों ही एक से लगते हैं। परन्तु इन दोनों में बहुत अन्तर है। पारस निश्चित ही लोहे को सोना बना देता है, परन्तु वो सोना पारस नहीं बनता। उस सोने का स्वयं का जीवन तो बदल जाता है परन्तु वो किसी और लोहे के टुकड़े को सोना नहीं बना सकता। पारस लोहे को सोना तो बना देता है परन्तु अपने इस विशिष्ट गुण को किसी और को नही देता। यहाँ पारस की सार्थकता कम हो जाती है। और दूसरी ओर एक दीपक अनेक दीपक जला सकता है और वो प्रकाशित दीपक अन्य हजारों दीपक जला हजारों व्यक्तियों के जीवन में प्रकाश ही नहीं लाते बल्कि उन को आगे वो प्रक्रिया बढ़ाने का अपना विशेष गुण भी देते हैं।
तो मुझे लगता है कि अपने जीवन में दैवयोग से आए ऐसे महाजनों से हम दीपक बन गुण ग्रहण करें ताकि उन के वो आदर्श विचार और दर्शन हम केवल अपने तक सीमित न रख सम्पूर्ण समाज को प्रकाशमान कर सकें और यह प्रक्रिया सतत् चलती रहे। आज के इस घोर कलयुग में हमें ऐसे अधिक से अधिक दीपकों की आवयश्कता है।

Sunday, March 29, 2009
श्री व्रत कथा:
यूँ तो सारे साल ही माता मनसा देवी मन्दिर में भक्तगणों का आना लगा रहता है परन्तु नवरात्रों के दस दिनों में दर्शनार्थियों की संख्या लाखों में पहुँच जाती है। भांत भांत के लोग एक - एक किलोमीटर लम्बी पंक्तियों में घंटों अपनी बारी की प्रतीक्षा करते। समाज के हर वर्ग के लोगों में माता मनसा देवी मन्दिर की बहुत मान्यता है। घर के पास ही यह मन्दिर होने के कारण सड़क पर आते जाते मैं इस दुनिया को देखता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं नास्तिक हूँ या आज कल के फैशन के अनुसार, मैं agnostic (भगवन के विषय में भ्रमित पढ़े लिखे लोग) हूँ । 'उस' पर मेरी पूर्ण आस्था है। परन्तु मैं ज्यादा कर्म-कांड नहीं कर सकता। मन्दिर या किसी तीर्थ पर जाना मेरे लिए बहुत कष्टदायक है और इस का मुख्य कारण है हमारी मंदिरों व् तीर्थस्थलों का रख-रखाव। खैर यहाँ विषय दूसरा है, मैं बात कर रहा था मनसा देवी मन्दिर की (और यह मन्दिर बहुत व्यवस्थित और साफ़-सुथरा है) और वहां आने वाले भक्तों की। आने वाले सामान्य भक्तों में एक अच्छी संख्या व्रतधारियों की रहती है और यह व्रत होता है अपने घर से मन्दिर तक दंडवत प्रणाम करते आने का। अपनी किसी मनोकामना की प्राप्ति हेतु श्रद्धालु यह प्रण लेते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर (कई बार अग्रिम कर के तौर पर भी) अपने घर से गर्भगृह तक कई किलोमीटर लगातार दंडवत प्रणाम करते आते। स्वाभाविक रूप से इन लोगों को पंक्ति में खड़ा नही होना पड़ता है। इस दंडवत प्रणाम की प्रक्रिया शुरू होती है अपने घर की चौखट से जहाँ पर श्रद्धालु पूजा अर्चना कर मन्दिर की और मुख कर साक्षात् प्रणाम करता तथा लेटे लेटे ही अपने हाथ में पकड़े चाक से एक लकीर लगाता, अब खड़े हो वो दो-एक कदम चल उस लकीर पर आता और फ़िर से दंडवत प्रणाम कर वैसी ही लकीर फिर बनाता। इस प्रकार हजारों उठक बैठक की शरीर तोड़ देने वाली मशक्कत से यह लोग मन्दिर पहुँचते। इस पूरी रस्म के दौरान इन भक्तों के कोई न कोई रिश्तेदार इनके साथ चलते हैं। बहुत बार तो कई तरुण केवल अपनी शारीरिक क्षमता परखने के लिए यह व्रत ले लेते हैं।
अब यह लोग श्रद्धा से यह व्रत लें या किसी मनोकामना पूर्ति की इच्छा के स्वार्थ हेतु या फिर पूर्ण हुयी किसी इच्छा के प्रतिदेय हेतु, मेरा हृदय इन लोगों के विश्वास प्रति सम्मान से भर जाता है। कारण चाहे जो भी रहे, यह कोई सरल राह नहीं है। एक और यह लोग हैं और दूसरी और मेरे जैसे। पिछले कई वर्षों से मैं नवरात्रों के सारे व्रत रखता आया हूँ। परन्तु इन उपवासों में अध्यात्म भाव कम और स्वास्थ्य सम्बन्धी कारण अधिक हैं। सारे साल मैं कोई उपवास नहीं करता इस लिए यह सोच कर कि इन व्रतों से शरीर के पाचन प्रणाली को थोड़ा आराम मिल जाएगा मैं यह व्रत नियमित रखता रहा। परन्तु यह बहुत मजेदार सत्य है कि उतनी वसा, प्रोटीन मैं सामान्य दिनों में नहीं लेता हूँगा जितनी इन सात दिनों में। मेरा वजन इन नवरात्रों में निश्चित ही बढ़ जाता होगा। माँ और पत्नी चिंता करती है की सारा दिन बिना खाने के सर दुखेगा इसलिये सुबह नाश्ते में पत्नी बिना प्याज के आलू की सूखी सब्जी की बाटी (बाटी कटोरी की बड़ी बहन को कहतें हैं) दही के साथ परोसती है। इस हल्के से नाश्ते के पूर्व दो बार की चाय के साथ व्रत वाले चिप्स या लड्डू का जिक्र करना शायद ठीक रहेगा। मेरे न न करने के बाद भी दोपहर को मेरे ऑफिस से किसी लड़के को बुला मेरे लिए कट्टु के आटे की मेथी वाली एक या दो रोटियां ढेर सारे मक्खन (मक्खन इसलिये क्योंकि माँ कहती है कट्टु का आटा बहुत खुश्क होता है) सहित भेज दिया जाता है। अरे हाँ, व्रत में चूँकि फलों का बहुत महत्त्व है इसलिये इन रोटियों के साथ एक आध सेब या केला जरूर रहता है। अब शाम को ऑफिस से लौटने पर (बेटा व्रत के कारण सारे दिन का भूखा होगा ) फलों की चाट या कट्टू के पकोडे चाय के साथ मेरी सारे दिन की क्षुधा शांत करने का प्रयास करते हैं। अब आख़िर इन व्रतों में भोजन तो केवल रात्रि का ही मान्य है इस लिए रात के भोजन में कभी आलू की तरी वाली सब्जी तो कभी पालक का साग किसी न किसी अन्य सूखी सब्जी के साथ (निश्चित ही बिना प्याज के), कट्टु के आटे के रोटियों, अदरक की चटनी (जितनी मात्रा अदरक की उतनी ही मात्रा में देसी घी ), दही, और सब्जी के मात्रा से मैच करती मक्खन की बाटी (मक्खन इसलिये क्योंकि........जी हाँ आप जानते हैं) के साथ खाने को रहता है। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पंजाब में व्रत रखना कितना कठिन है।
Saturday, March 21, 2009
चार्वाक सत्य जगत मिथ्या !
मानव जीवन का असली आनंद पाने का रहस्य जानने के लिए अधिकाँश लोग अध्यात्म की मुड़ जाते हैं कुछ अधिक जिज्ञासा वाले हिमालय की और प्रस्थान कर जाते हैं। परन्तु कुछ लोग इतने भाग्यशाली होते हैं जिन्हें इस रहस्य की चाबी घर बैठे ही मिल जाती है। सूद साहब ऐसे अति दुर्लभ भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। इस में भी घोर आश्चर्य की बात यह है कि ब्रह्म-ज्ञान धारा का यह रस केवल सूद साहब ही नहीं अपितु उन के सारे परिवार ने चख रखा है। जिस संसार के गहन दु:खों को देख सिद्धार्थ बुद्ध हो गए कम्बखत वो दुःख सूद साहब का आज तक एक बाल भी न टेढा कर पाए। सांसारिक कष्टों से यह विरक्ति उन ने किस अघोरी की सेवा कर पायी है यह रहस्य हमारे लिए अनबूझा है।
दुनिया इधर से उधर हो जाए या यह कहना उचित होगा कि उन की दुनिया इधर से उधर करने का कोई लाख प्रयास कर ले परन्तु सूद साहब कभी टस से मस नहीं हुए। वो आज भी हमेशा की तरह हर सुबह अपने घर के बाहर सड़क पर किसी गाड़ी से टेक लगा बड़ी तन्मयता से अपनी छाती के सफ़ेद बाल उखाड़ते और कश लगाते आती जाती काम वाली बाईओं को घूरते। मान-अपमान, अपेक्षा-उपेक्षा और उचित-अनुचित के गणित से वो बहुत ऊपर उठ चुके हैं। अपने मन से कोई बात तुंरत धो देने की योगिक शक्ति उन ने सिद्ध कर रखी है। हमारे जैसे तुच्छ लोगों की तरह नहीं कि किसी ने 'ओये' कह दिया तो दस दिन तक मुंह लटकाए बैठे हैं। सूद साहब के घर हजारों बार लोग-बाग़ आकर सूद साहब को उन की माताजी या बहनजी का स्मरण करा चले जाते परन्तु सूद साहब किसी का बूरा न मानते। मानते होते तो उन की पुनरावृत्ति न होने देते पर यहाँ तो यह क्रम अनवरत जारी रहता है। सूद साहब की नजर में ये वो सांसारिक भोगों से लिप्त लोग हैं जो उस माया को भुला नहीं पाते जो माया उन्होंने गलती से कभी सूद साहब को सोंप दी थी। वो अज्ञानी लोग यह नहीं समझ पाते थे कि सूद साहब वो माया अपने मन मस्तिस्क से कभी की धो चुकें हैं। इन अज्ञानी लोगों की लिस्ट में राशन वाला बनिया, धोबी, दूध वाला, गाड़ी धोने वाला, गाड़ी मरम्मत वाला, कई व्यापारी, कई सरकारी कर्मचारी, काम वाली बाई आदि आदि हर जाति धर्म तथा समाज के हर वर्ग के लोग शामिल हैं। सूद साहब किसी के साथ भेद-भावः नहीं करते तथा हर किसी का समान भावः से पैसा मारते।
अगर कोई यह समझे कि शायद मैं सूद साहब से खार खाता हूँ और उन की विवशता का उपहास का रहा हूँ तो मैं यह बताना उचित समझता हूँ कि सूद साहब के घर में किसी चीज कि कमी नहीं हैं। दो गाडियां, दो कमाऊ बेटे, लाखों का अपना फ्लैट, लैपटॉप, लान, बड़ा टीवी, छोटे मोबाइल, डिजायनर कपड़े और यहाँ तक की डिजायनर कुत्ता भी है। महर्षि चार्वाक के महान सिद्धांत, "यावेत जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' का ऐसा कठिन पालन मैंने आज तक न देखा न सुना। सूद साहब का व्यापार आज तक किसी को समझ नहीं आया, उन का आफिस तो है परन्तु किस चीज का, यह उन के आफिस के पड़ोसी भी नहीं जानते। उन को जानने वाले लोग उन का जिक्र आते ही स्वत: अपने को मुस्कराता पाते। जितना मैं समझ पाया सूद साहब की असली प्रेरणा उन की अपनी पत्नी थी जो समाज के सारे विरोध, तानों और गाली-गलोच को मन से धो देने में सूद साहब की बहुत सहायता करती। इस के अतिरिक्त जो प्रेरणा सूद साहब की पत्नी न दे पाती उस के लिए सूद साहब ने अलग से व्यवस्था कर रखी थी।
आज तक कभी सूद साहब के घर से सोसाएटी का मासिक शुल्क कभी नहीं आया था। उन ने नाम के नोटिस सोसायटी के सुचना पट्ट पर सालों से नियमित रूप से चिपके रहते । परन्तु यह तो सौ-दो सौ की छोटी सी बात थी, हैरानी तो तब हुए जब हमारी सोसायटी के प्रबुद्ध सदस्यों ने जो सदैव भारतीय राजनीती में भ्रष्टाचार से खिन्न रहते, प्रशासन में साफ सुथरी छवि वाले लोगों की मांग करते थे , मिसेज सूद को सोसायटी के वाइस प्रसीडेंट पद की नियुक्ति दे दी। नियमित रूप से मासिक शुल्क वालों के लिए इस से बड़ा तमाचा क्या हो सकता था? अब मिसेज सूद दनदनाती चलती और व्यवस्था ठीक करने का भाषण देती। एक बार एक बड़ी मजेदार बात हुयी। मैं अपने एक व्यापारिक पार्टी के पास उस के आफिस बैठा था जब उस ने मुझे एक पत्रिका देखने की लिए दी। उस वर्ष शहर में हुए व्यापारिक मेले में उन के स्टाल के चित्र उस पत्रिका में थे। पत्रिका देखते देखते मैंने एक चित्र में उन के स्टाल पर सूद साहब को खड़े पाया। मैंने अपनी स्वत: वाली मुस्कान दबाते उस व्यक्ति से पुछा कि यह आदमी केवल दर्शक है या कुछ और। मेरा इतना कहना था कि उन साहब ने चाय का पुन: आदेश दिया तथा मुझे आधा घंटा और बैठना पड़ा।
दूसरों पर मुस्कराते और सूद साहब के पड़ोसी हुए मुझे दस- बारह साल हो गए। इन दस सालों में मैंने कैसे अपनी माया उन से बचा रखी थी मैं जानता हूँ। जाने कैसे कैसे बहाने बना मैं उन का मुझ से कोई आर्थिक व्यवहार करने का कोई भी तरीका नहीं चलने दे रहा था। परन्तु बकरे की अम्मा कब तक खैर मानती । मेरा अपना पैसा बचाने का प्रयास उन के मेरा पैसा मारने के प्रण से कमजोर निकला। दो महीने पहले वो मेरे घर पालथी मार मुझे कुछ व्यापारिक विक्रय करने के लिए मना ले गए। मैं इस अहसास के साथ की शायद मेरे से लिहाज कर वो कुछ शर्म रखेंगे मैंने उन्हें उन की इच्छानुसार सामान दे दिया और वो मेरे हाथ दो दिन की तारीख का चैक पकड़ा गए। आज दो महीने बाद भी जब मेरा कोई कर्मचारी वो चैक ले बैंक जाता है तो बैंक का टैलर उसे देख स्वत: मुस्कुरा देता है।
अभी अभी ताजा ख़बर आयी कि कल शाम दो तीन दूध वाले मिल कर सूद साहब के घर से कुछ बर्तन उठा ले गए। अपने महीनो के पैसे न मिलने के कारण। परन्तु सूद साहब आज सुबह भी अपने सफ़ेद बाल उखाड़ते वहीँ खड़े थे और मिसेज सूद जमादार को सफाई ठीक से न करने पर सोसाईटी से निकलने की धमकी दे रही थी।
"चार्वाक सत्य जगत मिथ्या " !!
Sunday, March 15, 2009
'चाँद मेरा दिल'
मैंने अब उपन्यास बंद कर अपने ऐसे क्रिया-कलापों का हिसाब लगना शुरू किया जिस के बदले उस के यह अग्नि-बाण हो सकते थे। परन्तु मुझे ऐसी कोई हरकत ध्यान न आयी कि जिस की बात्तें सुनना अभी बाकी हों। 'अरी भाग्यवान, हुआ क्या ? ' मैंने अन्तत: पुछा। उस ने मेरी और ऐसे देखा जैसे मैं सब जानते हुए भी अनजान बन रहा हूँ। 'अब बतायो भी, क्या हो गया, और जरा सब्जी दे दो' मैंने सहजता से बोला। "आखिरकार पत्नी ही काम आती है" उस ने जैसे कोई किला जीतने के बाद सूचना दी हो। "जो यह तुम ज्यादा गलैमरस औरतों के पीछे भागते हो न, आखिर मुंह ही काला होता है।" अब वो मुझे ऐसे समझा रही थी जैसे प्राथमिक कक्षा की टीचर बच्चे को कोई अक्षर समझा रही हो। मेरा दिल जोर से धड़का, मेरा ऐसे कौन सा चक्कर था जिस के बारे में मुझे ही ख़बर न थी। 'अरे तुम क्या कह रही हो, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा" मैंने झुंझला कर कहा। "हाँ हाँ तुम्हे कोई बात क्यों समझ आने लगी, वैसे तो बड़े अपडेटिड बनते हो , सारा दिन अख़बारों में सर दे रखते हो, पर यह बात समझ नहीं आ रही" उस ने मेरा पलस्तर उखाड़ना शुरू कर दिया था। "अरे मेरी आशकी का कोई फसाना किसी अखबार में छप गया क्या ?" मेरा धैर्य अब जवाब दे रहा था। "तुम्हारा फसाना भी छप जाएगा किसी दिन, आजकल बहुत सज-धज कर जाते हो" उस ने त्योरी चढ़ा ललिता पवार जैसे ताना मारा। "मैं तो हमेशा ही सजा-धजा रहता हूँ, इस में क्या है ?" टेबल से उठते मैंने कहा। "हाँ हाँ, हमेशा ही सजे रहते हो कि क्या पता कब कौन सी टकरा जाए।" मेरे पीछे पीछे वो बाथरूम तक आ गई, स्पष्ट था वो विषय समाप्त करने के मूड में नहीं थी। "अरे मेरे ऐसे भाग्य कहाँ जो कोई हसीना टकरा जाए" हाथ धोते धोते मैंने उसे चिढाने के लिए कहा। "ज्यादा उड़ो मत, जिन के ऐसे भाग्य हैं उन पर क्या बीतती है, जानते हो ? उस ने कहा। "ओफो, अगर कुछ कहना है तो कहो वरना मैं चला" मैंने धमकाने का थका सा प्रयास किया।
"आख़िर बीवी के पास ही आना पड़ा ना ?" उस ने मुझे चिडाते हुए पूछा ? "किसे?? मुझे?" मैंने झुंझुला कर पूछा । "अरे तुम किस खेत की मूली हो," उस ने मुझे उपेक्षा से देखते हुए कहा, "मैं उस मुह्जले चाँद मोहम्मद की बात कर रही हूँ।" आख़िर उस ने रहस्य से परदा उठाया और मैंने जरा चैन की साँस ली। "मुंह काला करवा कर घर लौटना पड़ा ना ?" उस ने विजेता भाव से एक त्योरी चढा कहा। "ठीक है यार, पर इस में मैं कहाँ फिट होता हूँ, तुम मेरी चढाई क्यों कर रही हो' ?" मैंने तंग आ कर पूछा । 'ये सबक हैं तुम जैसे मर्दों के लिए, कुछ सीखो, पत्नी पत्नी ही होती है, आख़िर उस के पल्लू में ही सर छुपाना पड़ता है। घर गया, मान गया, धर्म गया, सारी उम्र की बनाई साख गयी, अगली ने पैसा बनाया और काम ख़तम।" वो बिना रुके प्रवचन कर रही थी और मैं ऐसे मुंह बनाये बैठा था जैसे किसी सत्संग में कोई लाउड स्पीकर वाला जबरदस्ती कथा सुनता है।
वो बोलती जा रही थी और मैं मन में चन्द्रमोहन को कोस रहा था जिस ने ख़ुद तो मजे लिए और हमारे जैसों के लिए भाषण छोड़ गया। अगर पछताना ही है तो लड्डू खा कर पछताना बेहतर नहीं? वो ठीक कह रही थी बहुत सारे मर्दों ने इस प्रकरण से सबक लिया होगा...................... किस तरह से इस परिस्थिति को आने नहीं देना है और अपना चक्कर चुप-चाप चलाना है। आमीन।